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सरकारी स्कूलों के अस्तित्व पर गहराता संकट

 

 

अनुज कुमार आचार्य

हिमाचल प्रदेश में सरकारी शिक्षा क्षेत्र में गिरते स्तर पर व्यापक बहस-चर्चा हो रही है। संभवतः यह भी उतना ही सत्य है कि सरकारी अध्यापक उच्च शिक्षित हैं और निर्धारित चयन प्रक्रिया से गुज़र कर ही सरकारी सेवा में आते हैं। पिछले 10-12 वर्षों में सरकारी स्कूलों में विद्यार्थियों की घटती संख्या एक चिंतनीय विषय है। कमोबेश इसके लिए कुछ हद तक सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के अभिभावकों का गैर-जिम्मेदाराना रव्वैय्या भी है। ऐसे अभिभावक प्रायः अपने बच्चों की शिक्षा-दीक्षा के प्रति उदासीन रहते हैं, वे बच्चों के स्कूल आने-जाने, हाज़िरी, गृहकार्य हुआ है या नहीं, प्रगति परीक्षाओं में बच्चों का प्रदर्शन कैसा है और यहां तक स्कूल में आकर अध्यापकों से मिलने-जुलने में भी परहेज बरतते हैं ?
अब यह निर्विवाद रूप से स्पष्ट हो चुका है कि सरकारी स्कूलों में प्राइमरी एवं मिडिल स्तर पर पिछले 7-8 वर्षों से चल रही ग्रेडिंग प्रणाली वाली ‘‘सतत् समग्र मूल्यांकन पद्धति’’ से मनमाफिक नतीजे हासिल नहीं हो रहे हैं। आठवीं कक्षा तक पहुंच चुके अधिसंख्य विद्यार्थी ठीक से न तो अंग्रेजी-हिन्दी लिख-पढ़ पाते हैं और न ही गणित-विज्ञान विषयों में बेहतर प्रतिक्रिया दे पाते हैं। इस प्रकार की अवस्था में अध्यापकों को प्रतिस्पर्धात्मक वातावरण के आभाव में प्राप्त ऐसे विद्यार्थियों को आठवीं कक्षा के बाद मनमाफिक तरीके से आगे बढ़ाने में कठिन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है और असफलताओं से रूबरू होकर सामाजिक एवं सरकारी कोप का भाजन भी बनना पड़ रहा है। महज आंकड़ों की बाजीगिरी में साक्षरता के दावों से हम आने वाले समय में हुनरमंद युवक-युवतियों को तैयार करने के बजाए नाकाबिल सर्टिफिकेट धारकों की फ़ौज तैयार कर रहे हैं। विद्यार्थियों में दण्ड के भय के आभाव के चलते वे उद्दण्डता की पराकाष्ठाओं को लांघकर शिक्षकों को ठेंगे पर रखते मिल जाएंगे। हिमाचल प्रदेश सरकार की महत्वाकांक्षी ‘‘कौशल विकास भत्ता’’ योजना तभी कामयाब साबित हो सकती है जब विद्यार्थियों का प्रदर्शन 10वीं एवं 12वीं कक्षाओं में अव्वल रहेगा, तभी हम उन्हें हुनरमंद, कौशल एवं क्षमतायुक्त मानव संसाधन में बदलने मंे सफल हो सकते हैं। लेकिन जब पहली से लेकर आठवीं कक्षा तक के छात्रों को पठन-पाठन की बाध्यता एवं परीक्षा परिणामों की चिंता ही नहीं है तो जाहिर सी बात है कि हम बेहतर नतीजों की उम्मीद भी क्यों करें ? हमारे शिक्षाविदों को इन कक्षाओं के लिए बनाए गए पाठ्यक्रम का सरलीकरण करना चाहिए। आज से 35-40 वर्ष पूर्व प्राइमरी स्कूलों में पढ़े-लिखें नागरिक यदि अपना बचपन याद करें तो शायद उन्हें अभी भी पुरानी शिक्षण पद्धतियों की सरलता वर्तमान परिप्रेक्ष्य में समीचीन लगेगी।
ऐसे समय मंें जब एकल परिवारों का चलन बढ़ चुका है, बढ़ती अहंकार भावना, भौतिकतावादी रूझान के चलते लोगों के आपसी मेल-मिलाप और भाईचारे की भावना में कमी दृष्टिगोचर हो रही है। हमें स्कूली पाठ्यक्रम में भारतीय जीवन मूल्यों, परम्पराओं, सह-अस्तित्व, दया, करूणा, क्षमा, प्रेम और संस्कार युक्त नैतिक गुणों को विकसित करने हेतु विशेष प्रयत्न करने ही पड़ेंगे, वर्ना हम भी बड़ी तेजी से कहीं न कहीं पश्चिमी जीवन शैली की चपेट में आकर अपनी संस्कृति और भारतीय जीवन शैली के मानवीय गुणों से विमुख होकर अपनी ही संस्कृति के आयातित संस्करण का इंतजार करते रहेंगे। विद्यार्थियों मंें गुरू के प्रति विनम्रता, आदर भाव एवं जिज्ञासा भाव को बढ़ावा देकर माता-पिता की आज्ञा पालन एवं सेवा भावना जैसे गुणों का संचार, उच्चकोटि की नैतिक एवं संस्कारयुक्त शिक्षा-दीक्षा द्वारा ही संभव हो पाएगा।
इसके अलावा सरकार को कम से कम सेन्टर हेड टीचर्स, मुख्याध्यापकों और प्रधानाचार्यों को उनके स्थायी निवास वाले शिक्षा खण्डों से इतर दूसरे शिक्षा खण्डों में नियुक्ति देने वाले सुझाव पर विचार-विमर्श करना चाहिए और सभी श्रेणियों के अध्यापकों एवं मिनिस्ट्रियल स्टाॅफ के युक्तिकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना चाहिए। अध्यापकों से केवल पढ़ाने का ही कार्य करवाया जाए। आज स्कूलों के फण्ड से लेकर ज्यादात्तर कार्य अध्यापकों से ही करवाए जाते हैं। लिहाजा अब यह समय की मांग है कि प्रदेश सरकार उन उपायों को लागू करे जिनसे बुनियादी शिक्षा व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन एवं सुधार लाया जा सके। संभवतः प्रदेश सरकार भी नहीं चाहेगी कि हिमाचल प्रदेश के सरकारी क्षेत्र के स्कूल बंद हो जाएं और शिक्षा व्यवस्था का व्यापारीकरण करके उसे शिक्षा माफिया के चंगुल में धकेल दिया जाए। यदि सरकारी क्षेत्र के स्कूल और नौकरियां खत्म होंगी तो निश्चित रूप से निजि शिक्षण संस्थाओं के संचालकों की मनमर्जी, तानाशाही का खामियाजा वहां पढ़ने वाले विद्यार्थियों, शिक्षकों और अभिभावकों को भुगतना पडेगा। किसी भी राष्ट्र की तरक्की एवं विकास की बुनियाद वहां की भावी पीढ़ियों को मिलने वाली गुणात्मक शिक्षा पर निर्भर करती है इसलिए समय रहते स्कूली शिक्षा विशेषकर प्राइमरी एवं मिडिल स्तर की शिक्षा व्यवस्था को संभालने की जरूरत है।

 

 


अनुज कुमार आचार्य

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