अनुज कुमार आचार्य
भौतिकतावाद की अंधी दौड़ में आज मानव चक्करघिन्नी बनकर रह गया है। आज छोटे-छोटे लड़के-लड़कियों और विद्यार्थियों को फैशन, मोबाईल, बाईकों ओर ‘फास्ट फूड’ की चकाचैंध के पीछे भागते देखकर एवम् अमर्यादित, उद्दण्ड आचरण करते देखकर संस्कार विहीन शिक्षा-दीक्षा की खामियां स्पष्ट दिखलाई पड़ जाती हैं। धर्म, दर्शन, साहित्य और श्रैष्ठतम् संस्कार परम्परा के वाहक देश भारत में युवक-युवतियां आधुनिकता की चपेट में आकर इस प्रकार से अपनी संस्कृति और संस्कार परम्परा से विमुख हो जाएंगे, यह एक चिन्तनीय विषय है। आज समय की मांग है कि हमारी युवा पीढ़ी संस्कारयुक्त शिक्षा एवं उच्चकोटि के चारित्रिक महत्व को समझे, उसके गुणोें की आत्मसात् करे और तदनुसार आचरण भी करे। यह भी कहा जा सकता है कि हमारी युवा पीढ़ि आधुनिकता को अवश्य अपनाए उसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती है लेकिन आधुनिकता के नाम पर फूहड़ता का प्रदर्शन नहीं होना चाहिए। मर्यादित और सुसंस्कारित रहकर भी आधुनिक जीवन शैली का आनन्द उठाया जा सकता है।
भारतीय युवा जगत को हमेशा याद रखना चाहिए कि संस्कार जीवन की बुनियाद हैं-इनकेे द्वारा हमारे दुर्गुण दूर होते हैं। काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, ईष्र्या, द्वेष और आलस्य जैसे दुर्गुणों तथा नकारात्मक प्रवृतियों पर हम संस्कारों द्वारा ही काबू पा सकते हैं। हमें हमेशा याद रखना चाहिए कि सुसंस्कारी, चरित्रवान और शीलवान व्यक्ति मरकर भी अमर रहते हैं। संस्कारों से ही हम सद्गुणी, सुविचार सम्पन्न, सेवा परायण, साहसी, अनुशासनप्रिय और संयमी बन सकते हैं। उत्तम संस्कार हमें अपने माता-पिता एवम् योग्य गुरूजनों के सानिध्य में रहकर मिलते हैं। यदि हम शिक्षा के महत्व पर ही चर्चा करें तो 2011 की जनगणना के मुताबिक भारतवर्ष की लगभग 75 प्रतिशत आबादी साक्षर थी। लेकिन क्या ज्यादातर नागरिक उद्देश्यपूर्ण संस्कारयुक्त शिक्षित आचरण भी कर रहे हैं यह एक विचारणीय विषय है।
स्वामी विवेकानन्द ने अपनी माता से आर्शीवाद स्वरूप धन न मांगकर ज्ञान मांगा था क्योंकि विद्या के समान कोई दूसरा बन्धु नहीं माना गया है, यह खर्च करने पर बढ़ती है। सरस्वती अर्थात् विद्या ईश्वर की पहचान कराती है। विनम्रता, कृत्तज्ञता, करूणा, परोपकार और आदर्श पर चलने की प्रेरणा हमें विद्या से ही मिलती है। लेखनी चलाने मंे भी सरस्वती अद्भुत आनन्द देती है। सरस्वती मां वागीश्वरी की कृपा हम सब पर बरसती रहे इसका सर्वश्रैष्ठ साधन योग्य गुरू होते हैं। गुरू न केवल ज्ञान का प्रसार करते हैं अपितु समाज के नव-निर्माण और विकास में अपना अमूल्य योगदान भी देते हैं। गुरू हमारे जीवन को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने और उसमें सार्थक बदलाव लाने की कोशिश करते हैं। गुरू का अर्थ ही अंधकार दूर करने वाला होता है। वास्तव मंे, प्रत्येक गुरू के मन में हमेशा यही विचार होते हैं कि उनके शिष्य सर्वश्रैष्ठ बनें। लिहाजा हमारे विद्यार्थियों, युवा पीढ़ि को सदैव अपने गुरूजनों का आदर-सम्मान करना चाहिए।
प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में सफलता प्राप्त करना चाहता है। इसके लिए अच्छा इंसान बनना सफलता पाने की पहली शर्त है। आशा, उमंग, समर्पण, उत्साह, परोपकार और सकारात्मक भाव से ही आप सफलता के पथ पर अग्रसर हो सकते हैं। वास्तव में सफलता उन्हीं को मिलती है जो आत्मविश्वास और अनुशासनबद्ध होकर सफलता पाने का प्रण लेते हैं, संकल्प लेते हैं। ‘थियोडोर रूजवेल्ट’ ने कहा था कि, ‘‘वह एक गुण जो किसी एक शख्स को दूसरे से अलग करता है वह-प्रतिभा, क्षमता, अच्छी शिक्षा या बौद्धिकता नहीं है, बल्कि वह है-किसी भी व्यक्ति का आत्म अनुशासन।’’ अनुशासन के बलबूते सभी चीजें हासिल की जा सकती हैं लेकिन इसके अभाव में बहुत छोटा सा लक्ष्य भी असम्भव ख्वाब सरीखा ही लगता है। हमंें हमेशा यह याद रखना चाहिए कि हमंें विरासत में संपति मिल सकती है, लेकिन प्रतिभा नहीं। प्रतिभा को खोजने और परिष्कृत करने का जिम्मा योग्य एवम् आदर्श गुरू का होता है। इन सब उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि मुख्यतः संस्कारयुक्त मर्यादित शिक्षा पाने का सर्वश्रैष्ठ साधन योग्य गुरूजन ही हैं। आचार्य चाणक्य ने एक सामान्य बालक चन्द्रगुप्त को शिक्षित, प्रशिक्षित कर सम्राट बना दिया था। प्रत्येक बालक प्रतिभाशाली होता है आवश्यकता होती है उसके अन्दर छिपी प्रतिभा को ढूंढ़ने और तराशने की। जिस देश मंें जितनी ज्यादा प्रतिभाएं होंगी वह राष्ट्र उतना ही समृद्धशाली और शक्तिशाली बनेगा।
इसी सिलसिले में बेंजामिन फ्रेंकलिन का कहना था कि, ‘‘सफलता के शहद के स्वाद को चखने के लिए बाधाओं के डंक की पीड़ा सहनी पड़ती है।’’ सफलता की राह में आने वाली बाधाओं, रूकावटों और चुनौतियों से पार पाने के लिए मनुष्य का उच्चकोटि का चरित्र होना अनिवार्य है। चरित्र का क्षेत्र बड़ा ही व्यापक और विस्तृत है। उच्चकोटि का चरित्र एक ऐसी मशाल के समान है जिसके प्रकाश की आभा से अनेक लोगों को प्रेरणा मिलती है। हमारी युवा पीढ़ी में भी उत्कृष्ट चरित्र का बीजारोपण हो इसके लिए वह सद्साहित्य पढ़े, सत्संग करे, योग्य गुरूजनों, आचार्यों के ज्यादा से ज्यादा संसर्ग में रहे। हमारी किशोरवय एवं युवा पीढ़ी का यदि सही बौद्धिक विकास होगा तो निश्चित रूप से उनकी मानसिक चेतना द्वारा रचनात्मक क्षमता में वृद्धि होगी, उनमें सकारात्मकता की भावना का विकास होगा। उनमें नई सोच का अंकुर फूटेगा और प्रतिभा सम्पन्न बनकर हमारा युवा यश, पद, प्रतिष्ठा को प्राप्त कर समाज की उत्तम भाव से सेवा भी करेगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि उपरोक्त विचारों तथा गुणों के प्रकाश से आलौकित होकर हमारी युवा पीढ़ी एकाग्रता से अपने गुणों एवम् क्षमताओं का स्व-मूल्यांकन कर आत्मविश्वास से लबरेज होकर अपनी रचनात्मक शक्ति और क्षमता को बढ़ाएगी तो निश्चित रूप से उनका जीवन तो उज्जवल होगा ही उनके सद्प्रयासों से भारत राष्ट्र की श्रैष्ठता में भी चार चांद लगेंगे। जिस देश का युवा सतर्क और सजग होगा, वह राष्ट्र निश्चित रूप से अखण्ड रहेगा। इसलिए हमारे युवाओं को सर्वप्रथम अपने आपको सुशिक्षित एवम् सुसंस्कारित बनकर राष्ट्रसेवा का प्रण लेना चाहिए।
अनुज कुमार आचार्य
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