लखनऊ के एक डिग्री कॉलेज में इंटरव्यू का पहला अनुभव
15 मार्च को रामभरोसे डिग्री कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर पद के लिये साक्षात्कार था। जैसा उसका नाम था वैसी ही व्यवस्था। हिन्दी में 2 पदों पर 40 लोग बुलाये गए थे। इंटरव्यू लेने के लिये तीन विद्वान आये हुए थे। जिसमें एक काशी हिंदू विश्वविद्यालय से सर थे और एक लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग की पूर्व विभागाध्यक्ष थीं।
मेरा नम्बर सबसे अंत में था, मुझे बिल्कुल अनुमान नहीं था कि कैसे प्रश्न पूछे जाते हैं। कक्ष के अंदर पहुँचते ही मैडम ने मुझसे पूछा," बेटा! तुम्हारी तबियत तो ठीक है, इतने मुरझाए क्यों लग रहे हो?" उनकी वाणी में मनुष्यता की शहद जैसी मिठास थी। मै कुछ बोलता उससे पहले सर ने कहा, अरे ये लोग सुबह से आये हुए हैं सब और 4 बजने वाला है। फिर उन्होंने मुझसे एमए के दौरान अध्ययन हेतु चुने गए विशेष कवि के बारे में पूछा, मैंने तुलसीदास बताया तो उनके चेहरे पर ख़ुशी का भाव दिखा, कहा सुबह से पहला बच्चा मिला है जिसने तुलसीदास लिया था।
उन्होंने मुझसे तुलसीदास के शूद्रों और नारी के प्रति दृष्टिकोण से सम्बंधित प्रश्न पूछे जो मुझे सप्रसंग बहुत अच्छी तरह से ज्ञात थे। उन्होंने मेरी बात को आगे बढ़ाते हुए यह भी कहा कि एक शिक्षक को कभी अपनी आस्था के कारण गलत का बचाव नहीं करना चाहिए। लगभग 15 मिनट के साक्षात्कार में ऐसा लग ही नहीं रहा था कि ये इंटरव्यू हो रहा है, ऐसा अनुभव हुआ जैसे हम लोग चर्चा कर रहे हैं, मैं उन शिक्षकों की विनम्रता और सहृदयता का मुरीद हो गया। मेरे मुँह से बार बार सर की जगह गुरु जी निकल रहा था।
उन्होंने मुझसे पूछा कि तुम्हारा जेआरएफ अभी नहीं हुआ? मैंने कहा, सर अभी जनवरी में हुआतो बोले, अरे तो पहले कहीं अच्छी जगह से पीएचडी कर लो क्योंकि परमानेंट तभी हो पाओगे, अब चयन में 30 नम्बर केवल पीएचडी के मिलते हैं । मैंने कहा - जी सर, सही कह रहे हैं आप, उसी की कोशिश में लगे हुए हैं। समझ नहीं आया कि ये बताऊँ या नहीं कि bhu का ret भी पास किया था पर गया नहीं मगर एक फिर बार दुख हुआ कि महामना मदनमोहन मालवीय द्वारा स्थापित विश्वविद्यालय में जहाँ इतने उदारचेता लोग पढ़ा रहे हैं, वहाँ जाने का अवसर अपनी ज़मीन से मोह के कारण गंवा दिया। फिर पूछा और क्या अच्छा लगता है आपको? मैंने बिल्कुल अपनी कविता का नाम नहीं लिया।???? मैंने प्रेमचंद, दिनकर और अज्ञेय का नाम लिया। तब उन्होंने आदर्शोन्मुख यथार्थवाद पर प्रश्न पूछे। मेरे उत्तरों से सभी लोग बहुत ख़ुश हुए, अंत में बोले, ठीक है बेटा, बहुत अच्छा , बहुत अच्छा। मैं हाथ जोड़कर बाहर निकल आया। मैं शिक्षक को हमेशा भगवान से बड़ा मानता हूँ, जीवन में कुछ शिक्षकों ने मुझे बिना मतलब उपेक्षित भी किया पर मैं उनको भी सदा प्रणाम करता रहा।अगर हिन्दी साहित्य पढ़ने और पढ़ाने के बाद भी कोई सच्चा मनुष्य न बन पाये तो और कैसे बनेगा।
एक अत्यंत कोमल अनुभव मन की झिझक और डर के ज़ख्म को सहला गया।
-अनुराग अतुल
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