“दैविक हो दैहिक हो भौतिक- तीनों प्रकार ,
शूल को त्रिशूल – धारी हरते हैं शिव जी !
बाँटते है अमृत, औ’ पीते हैं हलाहल को ,
शुभाशुभ कर्मों को कर शिव , शिव जी !
अन्तर में ज्योति जगती है, न कि पुनरुक्ति
लगती है बोलने पे शिव , शिव , शिव जी !
शिव करते हैं ध्यानमग्न होके राम – राम ,
राम करते हैं शिव – शिव – शिव – शिव जी !”
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