हर दुःख, पराजय, टूटन में
भीषण ज्वर की अंगड़ाई में,
वेदना, तपन, मायूसी में..
जब पलक-पेड़ से झरती-
सहमी हुई ओस की बूँदों में,
आ, चुपके से घुल जाती हो तुम!
तब, बहुत याद आती हो तुम. !
जब कहीं देखता हूँ, खेतो में
गेहूँ पर तनी हुई सरसों !
लहराती, इठलाती अपना
सौन्दर्य पराग लुटाती सी,
अपना अधिकार जताती सी;
जब, गेहूँ सा झुक जाता हूँ मैं,
सरसों सी मुस्काती हो तुम।
तब, बहुत याद आती हो तुम!
मेरे जीवन के चटक रंग
हैं फीके एक तुम्हारे बिन,
तुम बहुत बड़ी हो गयी
भले, घूमती हवा में, यानों में,
पर , मेरे मन के दर्पण में
उतनी ही छोटी दिखती हो;
मेरे सम्मुख छत की रेलिंग पर
जनक-भाव से खड़ी खड़ी
मेरी कविता गाती हो तुम..!
तब, बहुत याद आती हो तुम !
(अनुराग ‘अतुल’)
सोचा था ‘नयी कविता’ लिखूँगा
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