Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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जीवन : एक सफर

 


"इस तरह ही जिन्दगी के रात-दिन ढलते रहे।
ठोकरें खाते, संभलते, गाते हम चलते रहे।
...
लक्ष्य कोई भी हमारा, हमसफ़र ना बन सका,
हम उसे गिरते, टहलते, ढूँढ़ते, फिरते रहे।
...
हमने अपनी मंजिलों के रास्ते खोजे मगर,
किन्तु पाते क्यूँ भला जब पथ से ही टलते रहे।
...
गिर के ही सीखी हमेशा हमने 'जीने की कला',
हम कहाँ कहते हैं- 'नभ में ही सदा पलते रहे'।
...
टूट कर भी जिन्दगी में जोड़ जो कुछ हम सके ,
बस वही कविता हमारी हम जिसे लिखते रहे।
...
हसरतें ये उम्र भर मन की नहीं पूरी हुईं ,
जीत के भी जश्न में तो हाथ हम मलते रहे।
...
जानते थे, मानते थे- जिन्दगी संग्राम है,
फिर भी साये में दरख्तों के सदा छिपते रहे।
...
हर तरफ इंसानियत का हश्र कुछ ऐसा दिखा,
काफिला था दोस्तों का और हम लुटते रहे।
...
'हाथ मलकर रो पड़े हम देखते ही रह गए।'
बस इसी अनुताप की ज्वाला में हम जलते रहे।
...
भाग्य ने पुरुषार्थ पर पानी फिराया है बहुत ,
हार कर भी किन्तु हम जीवन-समर लड़ते रहे।
...
टूटकर संकल्प कितने दिल में चुभते आज तक,
रूप ले दृग-विन्दु का ता-जिंदगी बहते रहे।
...
आत्मा कहती थी जीने का सही अंदाज पर,
हम तो ठहरे मस्तमौला, मन की ही सुनते रहे।
इस तरह ही जिन्दगी के.................!"

 

 


-अनुराग शुक्ला

 

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