"इस तरह ही जिन्दगी के रात-दिन ढलते रहे।
ठोकरें खाते, संभलते, गाते हम चलते रहे।
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लक्ष्य कोई भी हमारा, हमसफ़र ना बन सका,
हम उसे गिरते, टहलते, ढूँढ़ते, फिरते रहे।
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हमने अपनी मंजिलों के रास्ते खोजे मगर,
किन्तु पाते क्यूँ भला जब पथ से ही टलते रहे।
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गिर के ही सीखी हमेशा हमने 'जीने की कला',
हम कहाँ कहते हैं- 'नभ में ही सदा पलते रहे'।
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टूट कर भी जिन्दगी में जोड़ जो कुछ हम सके ,
बस वही कविता हमारी हम जिसे लिखते रहे।
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हसरतें ये उम्र भर मन की नहीं पूरी हुईं ,
जीत के भी जश्न में तो हाथ हम मलते रहे।
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जानते थे, मानते थे- जिन्दगी संग्राम है,
फिर भी साये में दरख्तों के सदा छिपते रहे।
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हर तरफ इंसानियत का हश्र कुछ ऐसा दिखा,
काफिला था दोस्तों का और हम लुटते रहे।
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'हाथ मलकर रो पड़े हम देखते ही रह गए।'
बस इसी अनुताप की ज्वाला में हम जलते रहे।
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भाग्य ने पुरुषार्थ पर पानी फिराया है बहुत ,
हार कर भी किन्तु हम जीवन-समर लड़ते रहे।
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टूटकर संकल्प कितने दिल में चुभते आज तक,
रूप ले दृग-विन्दु का ता-जिंदगी बहते रहे।
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आत्मा कहती थी जीने का सही अंदाज पर,
हम तो ठहरे मस्तमौला, मन की ही सुनते रहे।
इस तरह ही जिन्दगी के.................!"
-अनुराग शुक्ला
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