अन्तर की यह व्याकुलता भी कविता में गानी पड़ती है।
ये बात मगर अपने मन को हर बार बतानी पड़ती है-
जिसको इतिहास-इमारत निर्मित करने की जिद होती है,
बिन चाहे भी कुटिया भविष्य की उसे ढ़हानी पड़ती है।"
"क्या लिखता हूँ क्या बतलाऊँ खुद भी समझ न पाया हूँ।
लेकिन इस कविता के खातिर सब कुछ दाँव लगाया हूँ।
होगी यह व्यवसाय किसी का अथवा व्यसन मनोरंजन,
पर मेरी तो रूह है कविता - मैं कविता की काया हूँ...."
"विजय - रथ को शिखर के शीर्ष तक चढने नही देती !
सफलता के सितारों से मुकुट मढने नहीं देती !
अगर चढते समय झुकना नही हम सीख पाते तो ,
हमारी आत्मश्लाघा ही हमें बढने नही देती ....."
"जीवन भर कवितायेँ गायीं, फिर भी शेष व्यथायें हैं।
लिखते-लिखते ऊब गया पर, चुकती नहीं कथायें हैं।
मेरे जीवन-मरुथल में ये अनुभव अद्भुत लगता है,
कण्ठ रुँधा बिन पानी के है, आँखों में सरितायें हैं..."
है आज पुण्यतिथि 'बापू' की, युगपुरुष महाबलिदानी की।
उस लाठी की जिसने लाखों तोपों की भी अगवानी की।
है धन्य भूमि यह! हुआ जहाँ पर सत्य न्याय का महाव्रती,
डण्डी-यात्रा, नमकांदोलन, अंतिम 'है राम!' की बानी की। "
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