अब रोज़ निकलेगा गली-गली,
मोमबत्तियाँ और तख्तियाँ बेचने वाला !
चंद रोज़ में ही पिघले इरादे सारे,
लड़खड़ाते कदमों से हाथ बढ़ा डाला ।
बात करते हो किसकी ... ?
एक बाप ने बेटी को भी मसल डाला ।
इंसानियत कब खौफ खाये ?
इंसान ने किया मानवता का मुँह काला ।
अन्धेरा ही अन्धेरा है ...पर !
जलाओ चन्द मोमबतियों की दीप माला ।
फिर हाथ में ले तख्ती,
और लिखें ... क्या यही है भारत देश हमारा ?
किधर है नारी, देवी ......?
झंडू बेचती मुन्नी या गुड़िया बनी मधु की हाला ।
खैर........ मनोरंजन ही था !
पर इसने सेंध लगा, नारी-शक्ति में किया घोटाला ।
हाले दिल ..! मत कहिये ..बस शाँत रहिये ...!
कलयुग आला... रे आला !
कलयुग आला... रे आला !
----------------------------------: आक्रोश (अनुराग त्रिवेदी -एहसास )
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