Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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नन्ही गुडिया ...!

 

अपने आँगन की नन्ही शहज़ादी,
दूजे घर की जीनत बन जाती है ।
कहती ..'मेरे घर में ऐसा नहीं होता ..!'
अपनी होकर फिर दूजी सी बन आती है ।
अपना पराया है क्या ?
उसके हाथ की चूड़ियाँ बतलाती हैं ।
बाबुल की गोद से उतरकर,
जब पिया के गले लग जाती है !
अपनी दुलारी किसी की प्रिया बन,
उसके गीत गुनगुनाती है ।
प्रकृति के नियम अनोखे ! जैसे भी हो,
बेटियां निभती-निभाती चली जाती हैं ।
लल्ला ने खिलौना छीना !
डांट वो हमेशा खाती है ।
लल्ला कितने भी कारनामे करके आये !
माँ देखकर भी छुपाती है ।
ज़रा नादानी गुड़िया कर दे !
हज़ार उलाहने पाती है ।
बचपन दर्द से गुज़रा,
जवानी ठोकर खाती है ।
दूजे घर जाकर, ये कला काम आती है ।
चुपके से आँसू पीती, किसी को नहीं बताती है !
हाँ ! अपनी गुड़िया .....
दिल बहुत बड़ा लेकर आती है ।
माँ बनते ही फिर स्नेह की गागर उड़ेले जाती है ।

 

 

अनुराग त्रिवेदी ...एहसास

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