Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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मुक्तक

 


इँसाफ़ की चाह में चप्पलें क्या उमर भी घिस जाती हैं,
कचहरी की सीढियां चढ़ते ही तकदीरें भी पिस जाती है ।
मिलती तारीखों का रोना ही लेकर बैठा रहे इन्सान !
फैसला आने तक नये वकीलों की खेप लग जाती है ।
उसके हिस्से झुर्रियाँ चढ़तीं साल दर साल ही सदा,
उधर वकील-बाबू की झोलियाँ भरती चली जाती है ।
काला कोट, यदि कमज़र्फ़ मिला तो फिर समझिये !
जीते जी बन्दे की जिन्दगानी, दफ़न होती जाती है ।
कोई ईश्वरी चेतना मिल जाये तो ठीक ! नहीं तो,
यमदूत की शक्ल ले, वसूलियाँ कर ली जाती हैं ।
दाग नही लगता काले लिबास पर कभी भी,
इसीलिए वकील को काले कोट की पोशाक दी जाती है ।
बंधी पट्टी कानून की देवी की आँखों में हमेशा से,
मुल्तवी होते केशों से, बन्दों की आँख खुल जाती है ।

 

भिखारी भी भीख नही मांगते, दर्द में डूबे बेज़ारों से !
पर कचहरी में इन्हें कोई तवज्जो नही मिल पाती है ।

 

कोर्ट है ... साहिब ...ये कचहरी है !
मरने की ज़रुरत नही, जीते जी जहन्नुम दिख जाती है ।

 


------------------------ -- अनुराग त्रिवेदी - एहसास

 

 

 

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