सम्मोहन व वशीकरण से बड़ा सवाल आस्था का है। आस्था की राजनीति का है। कैसे कोई आस्था के नाम पर लोगों के वज़ूद तक उनसे छीन लेता है और ख़ुद उनका आक़ा बन बैठता है। अपने जीवन की बेहतरी के लिए एक इंसान किसी भी ‘संत’ को अपना सर्वस्व सौपने को क्यों तैयार हो जाता है। वजह, ‘गुरु’ के आडंबर से कहीं ज्यादा उस व्यक्ति का सामाजीकरण है। जिसने इन तमाम दिखावों और ढकोसलों को वाजिब ठहराया। इनके प्रति मन में सवाल पैदा नहीं किए। सवाल ज़हन में आए भी तो ऐसे सवालों को ‘धर्म विरोधी’ या ‘गैर मज़हबी’ बता दिया गया। धर्म के नाम पर खड़े किए गए इसी आडंबर और आस्था के आंतक की बानगी है ‘गुरु’ भक्त की बेटी के साथ हुई हालिया घटना।
11 साल तक एक व्यक्ति अपने ‘गुरु’ को ‘भगवान’ मानता रहता है। गुरु की आज्ञा के बिना सांस लेना भी उसे गवारा नहीं। फिर अचानक एक दिन वही व्यक्ति आरोप लगाता है कि उसके ‘पूज्यनीय’ ने ही उसकी नाबालिग बेटी के साथ दुष्कर्म किया। तो फिर उन 11 सालों का क्या? उस विश्वास, उस आस्था का क्या? जो इस लंबे वक्त में मज़बूत से और मज़बूत होते चले गए। इस संदंर्भ में इस आस्था व विश्वास के आधार की पड़ताल ज़रुरी है जिसने मानसिक गुलामी व अंधभक्ति का व्यूह रचा है। ताज्जुब तो इस बात का है कि मीडिया के हवाले से पता चला कि पीड़िता की मां ने अनुष्ठान करवाया कि आरोपी गुरु जी की निचली कोर्ट में जमानत याचिका ख़ारिज हो जाए। इस विश्वास (अंधविश्वास) की जड़ें तलाशनी होगी। इसके मौजूदा ट्रेंड को समझना होगा।
देश का एक बड़ा हिस्सा कर्म कांडों के बीच पैदा होता हैं। गंडा, ताबीज़ और तमाम टोटकों के साथ ज्यादातर का बचपन गुज़रता है। शुरुआती दौर से ही इन्हें सबक के तौर पर रटाया जाता है कि तुम्हारे पूर्व जन्मों के कर्मों का फल तुम इस जन्म में भुगत रहे हो। तुम्हारे अच्छे काम तुम्हारा अगला जन्म सुधार देंगे। अब अगर पूर्व जन्म में कुछ ग़लत हो गया है जिसे वापस पूर्व जन्म में जाकर सुधारा नहीं जा सकता तो सबकुछ ठीक करने का एक मात्र विकल्प है। ‘गुरू’ की शरण में जाओं, अनुष्ठान करवाओ, टोना-टोटका की मदद लो। यहीं से शुरु होता है धर्म के नाम पर अपना व्यापार चलाने वालों का आंतक। अनुष्ठानों के नाम पर वो अपने भक्तों से मोटी फीस वसूलते हैं। साथ ही उनसे अपनी ग़ुलामी भी करवाते हैं। मसलन गुरु जी के पैर धोकर पिओ। उनके पैरों तले की मिट्टी अपने माथे लगाओ। ये दरअसल मानसिक गुलामी पैदा करने की रणनीति है।
ख़ुद को ये धर्म के ठेकेदार ‘भगवान’ कहते हैं। भक्तों को सादा जीवन जीने की सलाह देते हैं। मोह माया से मुक्त होकर परलोक सुधारने का उपदेश देते हैं। लेकिन ख़ुद उन्हें गुमराह कर अपना वर्तमान लोक सुधारने में कोई कसर नहीं छोड़ते। महंगी जीवन शैली इनकी भव्यता का पर्याय होती है। ऊंचे-ऊंचे सिंहासन इनके क़द को बढ़ा रहे होते हैं और सिक्कों की चमक इनका औरा तैयार करती है। जिससे भक्त भ्रम के भवर में फंसता चला जाता है। पूंजीपति और राजनीतिज्ञ इनके प्रिय भक्त होते हैं। क्योंकि ये आपस में एक दूसरे के फायदे साध रहे होते हैं। ये सत्ता के केन्द्रीकरण का उदाहरण है। जिसके तहत शक्तियां केन्द्रित कर पूंजीवादी, सामंतवादी व पुरुषवादी समाज की नींव रखी जाती है।
यहां उस मानसिकता को समझना ज़रुरी है। जिसकी वज़ह से पाखंड का ये व्यापार सफल हो सका। ये मानसिकता वर्ग विभेद को पूंजीवाद या सामंतवाद के बजाय पूर्व जन्म या भाग्यवाद में तलाशती है। समाज में व्याप्त जाति आधारित गैरबराबरी को आदर्श संरचना माना जाता है और स्त्री-पुरुष असमानता को पितृसत्ता का नतीजा मानने के बजाय प्रकृति प्रदत्त व्यवस्था मान लिया जाता है। ‘जो मिला है उसमें ख़ुश रहो’, ‘संतोष से बड़ा कोई सुख नहीं’, ‘हमेशा अपने से नीचे वालों को देखों’ ये वाक्य बड़े सुने-सुनाए से लगते हैं। ये उसी भाग्यवादी मानसिकता का नतीजा हैं। जो व्यवस्था के बने रहने में विश्वास रखती है और इसका सीधा फायदा हमारे समाज की क्रीमी लेयर को मिलता है। बड़े-बड़े बिजनेस ताइकून, सत्ताधारी महाराज को पूजते हैं। सही भी है। उनकी ‘सुख, संपत्ति व समृद्धि’ में गुरु का हाथ जो है। ऐसे में गुरु जी की ‘सत्ता, संपत्ति व शक्ति’ का अंदाज़ा बड़ी आसानी से लगाया जा सकता है। मज़े की बात तो ये है कि ये एक मात्र ऐसा प्राफेशन है जिसमें कोई इनवेस्टमेंट नहीं, लेकिन प्रॉफिट जबरदस्त है।
हाल की घटना पहली नहीं। ऐसी तमाम घटनाओं से हम पहले भी जूझते रहे हैं, लेकिन सवाल ये है कि तर्कों से परे हम एक काल्पनिक दुनिया में कब तक जीते रहेंगे। गुरु से छले जाने के बाद उसे सजा दिलवाने के लिए भी अनुष्ठान किया जाता है। ये मानसिकता घातक है। अत्याचार, गैरबराबरी व धोखाधड़ी की वज़ह तथाकथिक कुछ बुरे लोग या पिछले जन्म के बुरे कर्म नहीं हो सकते। इसकी पड़ताल व्यवस्था के भीतर करनी होगी। सामंतवादी/पूंजीवादी/ पुरुषवादी व्यवस्था के मायने समझने की ज़रुरत है। ज़ाहिर है ये किसी बाबा की बाबा गिरी (वर्तमान में एक स्थापित आर्थिक संस्था) से संभव नहीं।
इसके लिए सवाल करने होंगे और ये सवाल हर एक के सामाजीकरण में घुले-मिले होने चाहिए। ‘सेफ मोड’ की परंपरा से बाहर आने की ज़रुरत है। ज़रुरत आनंदवाद से निजात की भी है। वर्तमान व्यवस्था किसी वज़ह से है। इसे बमक़सद बनाया गया है। जिन्होंने बनाया अपने लिए बनाया। अपने फायदे के लिए बनाया। निश्चित तौर पर ये व्यवस्था बनाने वाले समाज के शक्तिशाली लोग रहे। जिन्होंने तमाम लोगों का हक़ छीना। फिर ये सबकुछ बना रहे इसलिए तमाम अवधारणाओं की मदद से व्यवस्था को स्थापित किया। गुरु की प्रचलित अवधारणा (पाखंड को प्रेरित करने वाली) इन्हीं में से एक है। जो गुरु के वास्तविक (एक शिक्षक, साथी, संघर्ष के लिए प्रेरित करने वाला) अर्थों से कोसों दूर है। यथास्थितिवाद के चंगुल से आज़ादी सिर्फ संघर्ष (इस संघर्ष के मायने तक़लीफ को सहना नहीं बल्कि स्थितियों को बदलने के लिए प्रयत्न करना है।) दिलाएगा। टोना-टोटका और पैर धोने की संस्कृति की परिणिति अंततः इस तरह की घटनाओं में ही होनी हैं।
अपर्णा दीक्षित
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