Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

स से सपना या संदेह...

 

 

...बाहर मेज़ पर दो ग्लास थे, जो इतने ही भरे थे कि उन्हें खाली न कहा जा सके। नीचे कालीन पर खाने का कुछ सामान बेतरतीब पड़ा था, जैसे खाया कम बिखराया ज्यादा गया हो। अंदर कमरे में मक्खियों की भिनभिनाहट का रुदन था। हवा सूजी हुई थी जैसे रात भर बादलों पर सिर पटकती रही हो। सुबह उग रही थी लेकिन सुमन ढल चुकी थी।


सुमन नाम था मेरा। गांव में सबकी दुलारी थी मैं। २ साल की थी बस जब मां गुज़र गई, मेरे पिता राघव ने सीने से लगा कर पाला था मुझे। कभी मां की कमी महसूस नहीं होने दी। बापू मुझे प्यार से सुम्मों कहा करते थे। जब कभी मुझे अपनी मां की याद आती तो बापू कहा करते “अइस दिल छोट न किया कर सुम्मों, मां-बाप सब हमही हैं तुम्हरे। तुम्हार जब जौन जी चाहे हमहिस कहा करौ। अरे हम तो अपनी बिटिया का रानी बनाय के रक्खब। हमरी आंखी का तू तारा है बिटिया। अइस रोवा न करो। राम जी सब देखत है। उनकी किरपा होई तो हमार बिटिया कलेक्टर बनिहे। फिर द्याख्यो गांव म सब कहिए। द्याख्व व आय रही रघुवा की बिटिया सुम्मों।” मैं कहती “बाबू जी सुम्मों तो बस तुम्हार है। उई सब तो तब मैडम जी... मैडम जी कहिए...” बाबू जी का चेहरा खुशी से लाल हो जाता और कई बार तो खुशी इतनी बढ़ जाती की आंखों से ही ढलक जाया करती थी। मेरी परिक्षाओं के नतीज़े... मास्टर जी की तारीफे... पड़ोसियों का जलना.. बाबू जी की खुशी को दुगना किए जाता था। वे सातवे आसमान पर थे और उनकी बिटिया सुम्मो उनके सिर पर। भले ही हम गांव के चमार कुनबे से थे लेकिन मेरे बाप ने मुझे हमेशा आगे बढ़ना सिखाया। बकौल बाबू जी शिक्षा सारी गैरबराबरी मिटा देगी। हमें हमारा हक़ दिलाएगी। गांव में... ठाकुर व पंडितों के कद से हमारा क़द कहीं ज्यादा ऊंचा हो जाएगा, अगर मैं कलेक्टर बन गई। मैं भी सपनों के समंदर में बस तैरती ही जा रही थी। कि तभी एक तूफान आया।


गांव का ही जमुना शहर से खूब पैसा कमा कर 10 साल बाद गांव लौटा था । बड़े ठाट बाट थे उसके। एक दिन घर आकर पिता जी से बोला “सुने हन कक्का सुमनिया का कलेक्टर बनाएक चाहत हो बड़े अस्कूल मा पड़ाएक चाहत हो।” बापू बड़ी उम्मीद से चहकते हुए बोले, “अरे क..क... बताई बेटा सुने तो एकदम ठीक हो तुम। चाहित तो यही हन। मुला हम गरीबन के कुछ अक्किल तो है नाही। पढै लिखै नहीं हन न।” जमुना ने बापू जी को जैसे मझधार में थामते हुए बोला, “कक्का यहिमा कौनो परेशानी की बात नहीं है। हम मरिगे हन का। यही दिन खातिर तो कुनबा-बिरादरी औ परिवार क आदमी काम आवत है। तुम अब घबराओ नाही। हम एडमीशन करईब सुमनिया का सहर के बड़े कालेज म। हमार बहिनिया है या। आज से सुमनिया की जिम्मेदारी हमार। बस कक्का तुम कुछ पइसा का इंतजाम कर देओ।“ जमुना मेरे बड़े ताउ का लड़का था। बाबू जी को अपने परिवार पर पूरा भरोसा था। उन्होंने अपनी अब तक की जमा सारी पूंजी जमुना के हाथ में थमाकर मुझे उसके हवाले कर दिया।


दिल में हज़ारों सपने सजाए मैं नए कपड़ों में शहर के लिए चल पड़ी थी। मेरा भविष्य जैसे मेरी आंखों के सामने घूम रहा था। मेरी खुशियों का कोई ठिकाना नहीं था। कॉटन की कड़क साड़ी में रुतबे से भरा मेरा वजूद मेरे आंखों के सामने था। मेरा दिल धड़क रहा था। मैं बेहद खुश थी। जमुना मुझे रास्ते भर खिलाते-पिलाते शहर ले गया। शहर पहुंचते ही हम एक टैक्सी में सवार हुए और लगभग एक घंटे बाद एक छोटे से घर में दाखिल हो गए। जमुना ने मुझसे सो जाने को कहा और कहा कि “चल सुमनिया सो जा तो। कल जल्दी उठेक पड़ी। तुम्हरे अडमीशन खातिर जावेक है न।” मैंने इतराते हुए सिर हिलाया और सोने चल दी। सोते वक्त ये ख्याल मेरे दिल को अंदर तक आराम पहुंचा गया कि बस खत्म हुए मेरी बेबसी के दिन। अब कल का सूरज मेरे भविष्य की नींव रखेगा। मेरे सुनहरे भविष्य की।


सुबह हुई... सूरज भी उगा... और सच पूछो तो मेरे भविष्य की नींव भी रखी गई। फर्क सिर्फ इतना था कि नींव मेरी बर्बादी की थी। दरअसल मैं जमुना के साथ आधे घंटे का सफर तय करके किसी अजीब सी जगह आ गई थी। यहां घुटन थी। तपन थी। मचलन थी। उघड़े जिस्म लिए लड़कियां इधर-उधर गिर संभल रही थीं। उनके चेहरे कभी भाव शून्य थे। वे बस डोल रही थी। उनके आसपास कुछ मर्द घूम रहे थे। जो घिनौने अंदाज़ में मुझे घूर रहे थे। मैं अपने बाबू जी की अपने जन्म दिन पर दी हई टेरी रूबिया की अपनी सबसे महंगी फ्रॉक पहन कर आई थी। गोटे से कढी। बाबू जी ने बड़े मन से सिलवाई थी कि जब सुम्मों पहली बार शहर के स्कूल जाएगी। तब ही पहनेगी। तब से संभालक रखी थी। उन्हें क्या पता था कि इसे पहनकर उनकी सुम्मों बाज़ार में बेची जाएगी।


जमुना एक बड़े से घर में एक मोटी, काली, भद्दी औरत के पास मुझे बिठाकर चलने लगा। मैं चीख रही थी। उसे पकड़कर खीच रही थी। लेकिन वो बस हाथ में सौ-सौ की गड्डिया लिए मुझे धक्के दिए जा रहा था। मैं लगभग घिसटती सी दरवाजे के पास तक उसके साथ चली गई। मेरे साथ बाबू जी की दी हुई फ्रॉक, उनके सपने, जज़्बात और मेरा भविष्य भी घिसटता चला गया। मुझे अंदर खींच लिया गया बाकी सब दरवाजे से घिसटते जमुना के पीछे ही चला गया।


वो औरत पान चबाते मुझे काफी देर तक घूरती रही। जैसे कह रही हो बड़ी आई थी न कलेक्टर बनने अब मैं बनाती हूं तुझे कलेक्टर। मुझे दो राक्षसी चेहरों ने अपने हाथों में दबोचकर एक काली कोठरी में फेंक दिया। लेकिन ये कोठरी मेरे आने वाले भविष्य से तो कम ही काली थी। मैं देर तक रोती-सिसकती रही और खुद ही अपनी सिसकियां गिनती रही क्योंकि किसी और के लिए इनका कोई मोल न था। सोई तो नहीं पर शायद थक कर बेहोश हो गई। आधी रात दरवाजा खुला। अचानक बेहोशी टूटी तो एक मोटा विशालकाय दानव मेरी आंखों के सामने था। वो हंस रहा था। मैं चुप थी। स्तब्ध। वेगहीन। जीवहीन। .... वो एक घंटे मुझे चबाता रहा। मैं अपने खत्म हो जाने का इंतज़ार करती रही। पता नहीं वो कब चला गया। मैं अब शांत थी।


मेरी शांत मन का शोर मुझे डरा रहा था। मेरी अंतड़िया मेरा पेट कचोट रही थी और मेरी हालत मेरा स्व। सामने पड़ा ग्लास मेरे हाथों में था। लेकिन अब वो टूट चुका था मेरे वजूद की तरह। मैंने पूरी ताकत से आंखे भीच ली। सामने बाबू जी का झोला था जिसमें वो मेरे लिए सेब संतरे लाया करते थे। हमारी झोपड़ी के खूंटे पर टंगा मेरा स्कूल का बस्ता जिसमें मेरी किताबें थी। जिसमें मैंने स से सपना पढ़ा था संदेह नहीं। छ से छाता समझा था छलावा नहीं। मैं नीले बॉर्डर की सफेद साड़ी में बाबू जी की तरफ बढ़ रही थी। तभी अचानक बाबू जी ने मुझे आगे बढ़कर अपनी बाहों में भीच लिया और मैं मैं मैं... खुशी से मर गई।

 

 


अपर्णा दीक्षित

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ