Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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प्रेम

 

 

प्रेमाकाश की अनन्ता
क्षितिज की कल्पना
जहां मिलती है धरा
आनत आनन नभ से
नत नयन विस्तार से
रत विरत ओंकार से
प्रकृति के अभिसार में
मैंने स्पर्श किया
भ्रम सदृश सत्य को
प्रेम भी सीमित हुआ कहीं
और अपसृत हुआ
मैं बंधा खड़ा रह गया
अपनी संकीर्णताओं में
इसी पार.....
उस पार......
प्रेम बस प्रेम है....
निर्मुक्त....निर्बन्ध
निःशेष...मात्र प्रेम....!!

 

 


अर्चना कुमारी

 

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