Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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ख्वाब सा..।

 

बुनती हूँ स्वेटर
या बुनती हूँ कोई ख्वाब नया
एक एक फंदे
बढ़ाते घटाते
होते है मेरे ख्वाब जैसे
टूटती उम्मीदों से
कुछ गिरते है फंदे
डलते नए आकार से
कभी सवँरते है सपने
नए रंगो से जुड़ते
रेशे रेशे होते है सपने
बंद होती सलाई से
कभी कंठ में कसते है सपने
फिर पूरा होते
न जचँने पर
फिर उधेड़ती हूँ
स्वेटर एक नए सपने की
चाह लिए ||

 


अर्चना ठाकुर

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