Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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एहसास

 
एहसास…

दिन निकल रहे हैं, वक़्त गुज़र रहा है
एक वो एहसास…
समझ के भी समझ के परे है वो
कुछ अजीब सा है ये
अब मोहब्बत या प्यार से न जोड़ लेना इसको
बस…. एक एहसास ही तो है
मोहब्बत नहीं है ये जान लो, उससे कम भी नहीं है ये भी मान लो
बस... एक एहसास…
वो धागा बना बैठा हूँ जो सुबह सुलझा लगता है… सूरज ढलते ढलते उलझ जाता है…
अँधेरा होते ही सोच मेरी उस मछली की तरह हो जाती है जिसको समंदर से निकाल के एक्वेरियम में डाल दिया गया हो…
ज़िन्दगी जहाँ रुकी पड़ी है, वहीँ एहसास और उलझन में भागमभाग चल रहा है…
मुश्किल है, ढूंढना भी आसान नहीं है… रो सकता नहीं और हसीं आ नहीं रही… कहाँ जाऊ किस्से सुनाऊ इस एहसास की शिकायत…
बात करना या करने की कोशिश भी करना मुश्किल हो गया है, बात कम लड़ जादा लेता हूँ…
क्या बताऊ अब, मैं तो मैं ही नहीं रहा… कुछ ऐसा भागा हूँ की अपने पीछे रह गए हैं, खुद पीछे जा नहीं सकता… आगे जाओ तो अपने और पीछे छूट जायेंगे… फसा ऐसा हूँ कि रोने के लिए बारिश का इंतज़ार करता हूँ…मैं तो मैं ही नहीं रहा …
एहसास… बस वो एक एहसास….
समझ के भी समझ से परे है

- AKP

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