सचाई तमाशे की…
क्या बताऊँ सचाई उस तमाशे की
दर्शक बना देख रहा हूँ मैं…
हसी ठिठोली में दबी जा रही चीख
तमाशबीन बने लुफ्त ले रहा हूँ
किन्तु – परन्तु के फेर में फसा हूँ
कब खत्म हो… कब खत्म हो ये खेल
इंतज़ार में बेचैन होता जा रहा हूँ
हिस्सा हूँ या नहीं इस तमाशे का..
शायद तमाशे को ज़िन्दगी या ज़िन्दगी तो तमाशा समझ बैठा हूँ
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