मां... एक अमुल्य धरोहर
अक्सर खोया रहता हूँ जिसके ख्यालों में
साथ है वो ये सोच कर युद्ध जीत लेता हूँ...
कल्पना मात्र से वक़्त रुक जाता है, और आंसू पथ ढूंढ लेते हैं
जिसने बिना शर्त मेरा साथ दिया,
ख्वाहिशें मेरी उसके जीत का हिस्सा होती चली गयी...
साये से भी ज्यादा करीब है वो
गलतियों को मेरी, नादानी का रूप देती रही वो
हर पल बस मेरा ही ख्याल था जिसे...
शब्द, पंक्तियाँ सब बौने हैं उस शख्शियत के आगे
और बहुत कुछ है बयां करने को… लेकिन
हृदय अक्सर हार मान लेता है इस निर्दय मस्तिक से
नज़र की रौशनी जहाँ तक प्रकाश करेगी,
उसकी मौजूदगी का एहसास वहां तक होगा
शब्द छोटा है, शख्शियत नहीं....
जीवन की अमूल्य धरोहर है वो...
माँ…
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