पेड़ की
टहनी से
पूछकर बताऊँगा
कि नव से
अवनि पर
क्यों झाँकता है ?
चाँद मटमैला !
अवनि पर
खड़ी
स्तम्भ सी
सीना तान
चट्टानें ,
शर्मीली भींगी सी
करती निंदा
बेखौफ खुली !
टहनी पहरा लगाती
अनगिनत पेड़ों की
झंझट महसूस करती
ढेरों ,
सबूत देकर !
थामकर साँस
कल हवा
निचोड़ लेगी
सबको भू पर
हठीली निर्दई बनकर
कोनें में
बैठकर ,
देखेगी तमासा
युग का
पीटकर हथेली
बारम्बार !
अशोक बाबू माहौर
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