रचनाकार: अशोक सतीजा ’सूर्यांश’
हां...मैं इस धरती पर...
ही रहता हूं...
मैं भी आक्सीजन सांसों में,
लेता और जल पीता हूं...
तुम्हारी तरह ही दिखता हूं..
फिर क्यों..
आखिर क्यों..
इतना अन्तर तुममें मुझमें..
तुम सिर्फ जीते हो...
मैं सिर्फ मरता ही हूं...
मैं..एक-एक रोटी के टुकड़े की
चिन्ता में घुलता रहता हूं..
छत बनी रहे मेरे सर पर..
ईश्वर से डरता रहता हूं...
एक तुम हो...
पता नहीं कितनों की रोटी खाते हो...
अनगिनत छतें तुम्हारे पास..
फिर भी कितनी तुम चाहते हो...
इतने दुख, इतने अभाव मुझे...
मैं हर पल रोता रहता हूं...
तुम सुख सागर में लिपटे..
मेरे हिस्से का सुख पीते हो..
मैं मौत तुम्हारी मरता हूं..
मेरे सुख तुम जी लेते हो...
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY