बेहयाई का धुआँ है इस कदर फैला हुआ,
माँ को क्या कह कर बुलाएँ ये बड़ा मसला हुआ,
दिल में रखकर खाक होगा हैं ज़ुबानें बंद गर,
घर ये मेरा बुज़दिलों का देखिये मेला हुआ,
बस करो अब और मत घोलो किताबों के जहर,
देखता हूँ देर से रंग खून का बदला हुआ,
है शराबों और हवस में इस कदर डूबा बसर,
हर नाजायज चीज़ की खातिर यहाँ हल्ला हुआ,
दहशतों में हर शहर है गाँव अब भाता नहीं,
मैं भटकता दर बदर इक उम्र से भूला हुआ,
एक तोड़ी थी किसी ने कब न जाने किस लिए,
पर नज़रिया मेरा हर इक रस्म पर मैला हुआ,
आबरू-ए-मुल्क की खातिर मरेगा कौन अब,
बुज़दिली की आड़ में है दिल मेरा बहला हुआ,
अस्तित्व "अंकुर"
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