दिल मेरा यूं भी कभी बेखयाल होता है
आईना देख के खुद से सवाल होता है
हद से गुजरे तो अपना सा लगने लगता है
और बिना दर्द के जीना मुहाल होता है
मेरे साये भी मुझे कहते हैं हिस्सा अपना,
सब्र से मेरे भी क्या-क्या कमाल होता है,
मुफ़लिसी को भी मेरी, मुझपे शर्म आती है,
क्या कसर रह गयी उनको मलाल होता है,
दिवाली, ईद, होली सब हमें रुलाते हैं,
और कहीं हाथ में हरदम गुलाल होता है,
लगा है हाथ बेजुबान के इक वतन अपना,
कभी मजहब कभी मुद्दा हलाल होता है,
अस्तित्व "अंकुर"
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