Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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मैं अच्छा भी था और मैं सच्चा भी था

 

मैं अच्छा भी था और मैं सच्चा भी था,
बस कुछ दिन हुये जब मैं बच्चा भी था,
वक़्त की मार से मैं बड़ा हो गया,
दुनिया के खेल में मैं खरा हो गया,

 

इस शहर में रहा इसका पानी पिया,
इक ज़हर मेरी साँसों में घुल सा गया,
नज़रों की छत से फिर गिरता ही मैं गया,
लोग खुश हैं मैं उनकी तरहा हो गया,

 

 

अब है मजहब कोई और न ईमान है,
दिल मेरा ऐसी बातों से अंजान है,
एक बाज़ार में मैं खड़ा हो गया,
पाप का चलता फिरता घड़ा हो गया,

 

वक़्त की मार से मैं बड़ा हो गया,
दुनिया के खेल में मैं खरा हो गया,

 

 

अस्तित्व "अंकुर"

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