मुझे हर इक पहर बस दोपहर का गम सताता है,
जिसे ओढ़े मैं बैठा हूँ मुझे हर पल जलाता है,
न जाने तुम ही क्यूँ देखे से मेरे रूठ जाते हो,
तुम्हारा गम मेरे पहलू में बैठा मुसकुराता है,
मुझे हर कामयाबी से शिकायत हो ही जाती है,
मेरी आगोश में आकर तू जब भी टूट जाता है,
मैं खुद को ढूंढ कर उसमें ज़रा खुश हो ही लेता हूँ,
कोई बच्चा लड़कपन को मेरे जब मुह चिढ़ाता है,
लिपटता जा रहा है तेरे आँचल से न जाने क्यूँ,
कोई रिश्ता पुराना फिर मुझे रस्ता दिखाता है,
धड़कता जा रहा है दिल मगर क्या फायदा “अंकुर”,
वो बुत दिल को तेरे तुझको बड़ा सस्ता बताता है,
अस्तित्व "अंकुर"
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