Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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पढ़ के अबके खत हमारा वो किनारा कर रहा

 

 

पढ़ के अबके खत हमारा वो किनारा कर रहा,

अपने ही दिल से मुखातिब होने से वो डर रहा,

 

क्या कहें किस बेरुखी के साथ आया है जवाब,

है लिफाफा खाली वो, मेरा पता जिस पर रहा,

 

हो चले अपना मुकद्दर उम्र भर के फासले,

ज़िंदगी हम पर तेरा एहसान ये बेहतर रहा,

 

हमसे ना उम्मीद रखो बेवफ़ाई की कभी,

है वफा का ऐब ये, इल्ज़ाम अपने सर रहा,

 

ज़ब्त से मैं काम लूँ पर कब तलक मेरे खुदा,

कब तलक सुनता रहूँ तू नाखुदा अक्सर रहा,

 

अपने क्या और क्या पराए भेद सारे खुल गए,

जब भी रिश्तों में बंधा बाज़ार में बिक कर रहा,

 

ज़िंदगी और मुफ़लिसी में फर्क क्या “अंकुर” करे,

आसमां है छत यहाँ और रास्ता बिस्तर रहा

 

 

अस्तित्व "अंकुर"

 

 

 

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