Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

सांसें हैं तेज़ ज़िंदगी से भागता लगे

 

सांसें हैं तेज़ ज़िंदगी से भागता लगे,
निकला है बेनकाब अब वो क्या खुदा लगे,
रोटी तवे पे डाल दी अब आग फूँक लो,
जल जानी है जो इसको सियासी हवा लगे
इतना बंटा है आदमी रिश्तों के नाम पर,
जितनी दफा भी तोलिए फिर से घटा लगे,
क्या चीज़ बिक रही है मोहब्बत की आड़ में,
आँखें जो खोलता हूँ तो तेरी वफा लगे,
उस मोड से गुजरा हूँ मोहब्बत की राह में,
अब ना दुआ लगे है न ही बददुआ लगे,
मुद्दत से लिख रहा हूँ तेरे नाम पर ग़ज़ल,
तुझको मेरे हुनर की कभी तो हवा लगे,
तू गीत मेरे अपनी जुबां पर तो ला कभी,
मुमकिन नहीं कि अंकुर तुझ पर बुरा लगे

 

 

अस्तित्व "अंकुर"

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ