तमन्ना थी तो मुझको भी रिवाज़ों से बगावत की,
ज़रुरी था तो मैंने बस उसूलों की हिफाज़त की,
ये अश्क़-ओ-ग़म बहुत ही काम आये हैं मेरे लेकिन,
मेरे मौला ज़रूरत क्या थी इतनी भी इनायत की,
ग़ज़ल मेरी, मुलाक़ातों पे ही दम तोड़ देती है,
मैं बातें लिख कहाँ पाता हूँ अंजाम-ए-मोहब्बत की,
यकीनन ज़िंदगी का मौत से झगड़ा रहा होगा,
न वो आयी मुझे लेने न इसने ही हिफाज़त की,
उतारो आँख से परदे चलो रस्ते नये ढूंढें,
नहीं है फिक्र अब मुझको ज़माने से अदावत की,
तुम्हारे ख्वाब जबसे आसमां से हो के आये हैं,
हमारे इश्क़ से आने लगी है बू सियासत की,
हवाओं सा सफर खुशबू के बिन कैसा रहा “अंकुर”,
तू सबके काम तो आया मगर सबने शिकायत की,
अस्तित्व "अंकुर"
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