Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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ग़ज़ल बन कर मेरे दिल में ठिकाना ढूंढ लेता है

 

ग़ज़ल बन कर मेरे दिल में ठिकाना ढूंढ लेता है,
वो बेघर है मगर यूं आशियाना ढूंढ लेता है,


हर इक मोती समंदर की हदों में छुप नहीं सकता,
कभी आँखों में भी वो शामियाना ढूंढ लेता है,


पड़ी जो धूप चेहरे पर तो रोना आ गया तुमको,
उसे देखो जो जल कर मुसकुराना ढूंढ लेता है,


बहुत कोशिश है औरों के ग़मों को नज़्म कर पाऊँ,
दिल उसको गुनगुनाने का बहाना ढूंढ लेता है,


कभी अंकुर की दौलत को ज़माना लूट न पाया,
हवाओं में घटाओं में खजाना ढूंढ लेता है,

 


अस्तित्व "अंकुर"

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