Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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एक रोज उगा चाँद पूरब में

 

एक रोज उगा चाँद पूरब में

गोल सुन्दर उस कहानी जैसा

जो बच्चे को दादी ने सुनाई थी

उस बुढ़िया की

जिसकी झुकी हुयी कमर अब भी कुछ कुछ

दिखती है उसके धब्बे में

 

अल्हण उम्र का एक लड़का

जिसकी सुबह शामो ने

अभी-अभी अलसाना शुरू किया था

और राते जगी अधजगी सी रहती थी

निहारा चाँद देर सूनी रात तक

चाँद था उस लड़की जैसा

जो आजकल अंधरे उजाले

हंसती मुस्काती दिखती छिपती है

 

घर की स्त्री को दिखा चाँद सुबह के पहरे

जब नींद टूटी थी भोर अन्दाजने को

पश्चिम में बस था ढलकने को

बिलकुल उस जैसे

सुबह शाम होने को

 

मजदुर के हिस्से में था

आसमान की चट्टानों पर

रखी गोल रोटी जैसा चाँद

जिसके लिए उसने अपना तोडा है जिस्म

पत्थरो के बहाने

दफनाए है सपने

ऊँची इमारत के नीव जैसे

 

चाँद निकलता है सदियों से

ऐसे ही रातो में

कहानी,लड़की,स्त्री ,रोटी बनकर

कि जीती मरती दुनिया में

कही सपने न मर जाएँ

 

अतुल कटियार

 

 

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