Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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मुक्तक

 

 

  • क्‍यों लहु भरा इन ऑखों में
    क्‍यों बैचनी है ख्‍वाबों में
    बस यही सोचता रहता हॅू मैं
    जमीर ही मर गया इंसानों में

 

  • कलाम किसी और का सुनाया नहीं जाता !
    दिल अब किसी और से लगाया नहीं जाता !!
    जब से पिये है,तेरी ऑखों के नशीले जाम !
    पैमाना अब इन हाथों से उठाया नहीं जाता !!

 

 

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