ग़ज़ल
फूलों की सरदारी अपने शहर में।
सब ध्र्मों की यारी अपने शहर में।
बेशक अपने बुज़ुर्ग अडियल मुँहफट हैं,
नीम बहुत गुणकारी अपने शहर में।
जफ्रफी पा कर माथे चूम के मिलती हैं,
ईद तथा पिचकारी अपने शहर में।
इन्द्रध्नुष है रिमझिम, बसंत, सावन हैं,
प्रत्येक ट्टतु प्यारी अपने शहर में।
दुश्मन के लिए मुख्य द्वार पर लटकी हैं,
तलवारें दो धरी अपने शहर में।
पूरा पूरा तौले बाबे नानक तरह,
व्योपारी आचारी अपने शहर में।
चिड़िया, बाज, कबूतर इक्ट्ठे ही भरते,
अम्बर बीच उडारी अपने शहर में।
जब भी अंध्ेरे बीच मुसीबत आई,
चाँद ने लौ उतारी अपने शहर में।
आध्ी रात को भी आज़ादी से घूमें,
निभर्य नर एवं नारी अपने शहर में।
मानवता को प्यार करे वह तब रिश्वत,
लेता नहीं पटवारी अपने शहर में।
कृपालू, ध्र्मालू, दयालू, श्र(ालू,
कौन चलाए आरी अपने शहर में।
दुखों को भी विभिन्न सुख के रंगों में,
रंग देता लल्लारी अपने शहर में।
सूरज ने फिर पौफुटालें में आरती,
शबनम बीच उतारी अपने शहर में।
भिन्न-भिन्न जुण्डली हैं, विभिन्न सभाएं हैं,
सब से अध्कि लिखारी अपने शहर में।
गुरदासपुरे ओंकार नगर में आ कर देखो,
सिर माथे पर यारी अपने शहर में।
‘बालम’ जन्नत देखती है तो आ जाना,
गिरिमाला, गिरधरी अपने शहर में।
बलविन्दर ‘बालम’ गुरदासपुर
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