Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

प्रसिद्ध(-प्राचीन ऐतिहासिक शंकराचार्य मन्दिर कश्मीर ;श्रीनगर

 

प्रसिद्ध(-प्राचीन ऐतिहासिक शंकराचार्य मन्दिर कश्मीर ;श्रीनगर
शंकराचार्य मन्दिर श्रीनगर से 4 किलोमीटर दूर एक पहाड़ी की चोटी पर दर्शनीय स्थान है। यह मन्दिर श्रीनगर के प्रत्येक भाग से देखा जा सकता है और इसकी ऊंचाई 1000 फुट है। इस मन्दिर की चोटी से सारा श्रीनगर ;कश्मीरद्ध नज़र आता है। दूर-दूर पहाड़ियों के बीच तथा डल झील की भव्यता तथा विशालता को आशीवार्द देता हुआ आध्यात्मिकता का पर्याय हो जाता है। डल झील में शिकारे में बैठकर भी इस मन्दिर का अदभुत नजारा देखा जा सकता है। पहाड़ी के सिर पर शोभनीय मन्दिर दूर से केवल ऊपरी भाग तक ही नज़र आता है। इस मन्दिर में शंकराचार्य की मूर्ति शोभनीय है साथ उनका एक ग्रंथ भी पड़ा हुआ है। मन्दिर में तथा अलग एक छोटे से तप कमरे में उनकी मूर्तियां शोभनीय हैं। इस मन्दिर पर खड़े होकर आप सारे शहर का दृश्य देख सकते हैं। यहां जाने के लिए दो रास्ते हैं एक जो दुर्गानाग ;न्ण्छण्व्ण्द्ध दफ्रतर से जाता है और 3) कि.मी. की चढ़ाई है। इस रास्ते से जाकर आपको एक विशेष आनन्द मिलेगा और सैर भी हो जाएगी और रास्ते में आप डल झील, चार मिनार, मुगल बागों का दृश्य भी देखते रहेंगे।
गोपादरी या गुपकार टीले को शंकराचार्य या तख्ते-सुलेमान भी कहते हैं। समुद्रतल से 6240 फुट ऊंची यह पहाड़ी श्रीनगर के उत्तर-पूर्व में स्थित है। इसके साथ ही जबरवान पहाड़ियां नीचे डल झील उत्तर में जेठनाग और दक्षिण में जेेलहम नदी है। यह मन्दिर डोरिक निर्माण प(ति के आधर पर पत्थरों का बना हुआ है। इसके संबंध् में कई वि(ानों का कहना है कि इसकी नींव ई. 200 पूर्व अशोक के सुपुत्रा महाराजा जन्तूक ने डाली थी। इसकी मरम्मत समय-समय पर यहां के कई राजाओं शिवगुरू ने इस शिशु का नामकरण किया-‘शंकर’। बहुत कुछ सोच-समझ कर उन्होंने यह सार्थक नाम रखा था। पहले तो यह बालक सभी को आनन्द ;समद्ध प्रदान करने वाला ;करद्ध था और दूसरे यह कि इसकी उत्पत्ति शंकर जी की कठिन आराध्ना के फलस्वरूप उनके वरदान के कारण हुई थी।
जब वैदिक ध्र्म की दुर्दशा होने लगी, स्वर्ग दुर्गम हो गया, मोक्ष दुष्प्राय हो गया, प्राणधरी जीवों के स्वभाव मलीन हो गए, अमानवता का बोलबाला होने लगा, समस्त जगत् में विध्न-बाध-रोग आदि ने डेरा डाल दिया, तब इस भूतल पर वैदिक ध्र्म की पुनः स्थापना के लिए भगवान् महादेवा आचार्य शंकर के रूप में अवतरित हुए। उस समय आचार्य शंकर के आविर्भाव की महान् आवश्यकता थी। यदि उनका अवतरण उस समय न हुआ होता, तो न जाने वैदिक ध्र्म किस पाताल के गहरे गर्त में गिरकर समाप्त हो गया होता। शंकर के जन्म का यही रहस्य है।
बालक शंकर ने आयु के प्रथम वर्ष में ही सभी अक्षरों तथा अपनी मातृ-भाषा-मलयालम को सीख लिया। द्वितीय वष्र में विध्वित पढ़ना सीख लिया और तृतीय वर्ष में काव्य और पुराणों को श्रवण मात्रा से ही समझ लिया। शंकर बाल्यकाल से ही श्रुतध्र थे, अर्थात् एक बार की सुनी हुई वस्तु, उनके मानस पटल पर सदैव के लिए अंकित हो जाती थी। तृतीय वर्ष में उनका चूड़ाकरण-संस्कार सम्पन्न हुआ। शंकर के पांचवें वर्ष में, उनकी माता विशिष्टा ने सुन्दर योग और शुभ मुहत्र्त में उनका उपनयन संस्कार शास्त्राीय विध् िसे सम्पन्न कर दिया। उपनयन-संस्कार के पश्चात् शंकर विद्याध्ययन के लिए गुरू के समीप भेजे गए। उन्होंने अल्पकाल में अपने गुरू से चारों वेदों और षट्-शास्त्रों का अध्ययन कर लिया। शंकर ने ब्रह्म-विचार से विषयों की समस्त स्पृहाओं को नष्ट कर दिया। अपनी अनुपम शान्ति से के लिए आप शाम 6 बजे से पहले ही जाएं। रात को ऊपर नहीं जाने दिया जाता।
वि(ानों के अनुसार शंकराचार्य का समय 788 ई. से 820 ई. तक है। इस मत की उद्भावना और पुष्टि का श्रेय डा. के.बी. पाठक को है। उन्होंने अनेक प्रमाणों द्वारा अपने मत की पुष्ट किया है। शंकर के जन्म के अवसर पर प्रसि( ज्योतिषियों का आगमन हुआ। शिव-गुरू ने नवजात शिशु की कुण्डली उन्हें दिखलाई। उन्होंने कुण्डली का फल बताते हुए कहा, हे विद्वन्, यह बालक सर्वगुण-सम्पन्न और सर्वज्ञ होगा। यह स्वतन्त्र दार्शनिक सि(ांत ;अद्वैत मतद्ध का प्रतिष्ठाता होगा और बड़े-बड़े मानी और प्रतिष्ठित पंडितों को शास्त्रार्य में पराजित करेगा। जब तक पृथ्वी है, तब तक इसकी कीर्ति अमर रहेगी। हम लोग इसके सम्बन्ध् में और अध्कि क्या कहें, यह सभी दृष्टियों से परिपूर्ण होगा।य्प्रसि(ि हो गई थी। पंडितों, शास्त्रार्थियों, जिज्ञासुओं और मुमुश्रुओं के झुण्ड के झुण्ड उनके पास पहुंचते थे। वे निरन्तर लोकहित में निरत रहते थे। ब्रह्मसूत्रा आदि पर भाष्य लिखकर आचार्य शंकर ने श्रुति के अर्थ और रहस्य का उद्वार किया।
आचार्य शंकर ने व्यासगुफा में रहकर चार वर्षों में लिखने का सारा कार्य समाप्त कर दिया। यह उनके जीवन की महत्त्वपूर्ण उपलब्ध् िथी। अब उनकी आयु सोेलह वर्ष के समीप पहुंच रही थी। उनके शिष्यों ने आचार्य का ध्यान इस ओर आकर्षित किया कि जन-साधरण में भाष्यादि का प्रचार करना नितांत आवश्यक है। उन्होंने अपनी स्वीकृति दे दी। अतः वे अपने शिष्यों सहित सबसे पहले हिमालय के तीर्थों की यात्रा पर निकले। आचार्य शंकर और कुमारिल भट्टð की भेंट भारत के धर्मिक इतिहास में एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण घटना है। भट्टðपाद कुमारिल में महा-प्रयाण के पश्चात् आचार्य शंकर ने शिष्यों सहित प्रयाग से प्रस्थान किया। मंडन मिश्र में शीघ्र मिलने के लिए उन्होंने योगाशक्ति से आकाश का सहार लिया। अंततः यतिशिरोमणि आचार्य शंकर ने अपनी युक्ति, तर्क, पांडित्य और अनुभव से विचक्षण मंडन मिश्र के शास्त्रा-कौशल के सभी पक्षों का विध्वित खण्डन कर दिया। आचार्य शंकर ने श्रीशैल में निवास करके कापालिकों का प्रभुत्व समाप्त कर वैदिक ध्र्म की पूरी-पूरी प्रतिष्ठा कर दी।
व्यास-रचित ब्रह्मसूत्रा को ‘वेदान्त-सूत्रा’ या ‘शरीरिक-सूत्रा’ भी कहा जाता है। इस ब्रह्मसूत्रा में विशेषतया जीव के बन्ध्न और उसके मोक्ष लाभ का दार्शनिक विवेचन प्रस्तुत किया गया है। सामान्य व्यक्ति को उनके छोटे-छोटेेेेेेेेेेे सूत्रों का अर्थ समझना नितान्त कठिन है। आचार्य शंकर ने इस कठिनाई को अनुभव करके उन सूत्रों का अर्थ स्पष्ट करने के लिए अद्वैतपरक भाष्य की रचना की। उनकी यह कृति दार्शनिक-जगत् की अनुपम और अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रचना मानी जाती है। ब्रह्मसूत्रा, उपनिषदों और श्रीमद्भगवद्गीता पर भाष्य लिखना, श्रृंगेरी मठ का संस्थापन तथा अपने शिष्यों द्वारा वेदान्त-ग्रन्थों की रचना कराना आचार्य शंकर के महत्त्वपूर्ण कार्य थे। बारह वर्ष पूर्व आचार्य शंकर परिव्राजक के रूप में वाराणसी आए थे। तब वे अज्ञात बालक संन्यासी मात्रा थे। अब उनका दूसरा ही स्वरूप हो गया था। समस्त भारत में उनकी कीर्ति की ध्वल गाथा व्याप्त हो गई थी। जन-जन के मुख पर उनका नाम था। आचार्य शंकर जिस प्रकार अध्यात्म विद्या, अद्वैत सि(ान्त और शास्त्रों ने अपने मठाम्नाय में भलीभांति की है। दशनामी सम्प्रदाय के अखाड़ों में 52 मढ़ी बताई जाती है और मुख्यतः पांच या छः अखाड़े हैं। प्रसि( अखाड़ों के नाम इस प्रकार हैं- ;1द्ध पंचायती अखाड़ा महानिर्वाणी ;प्रयागद्ध ;2द्ध पंचायती अखाड़ा निरंजनी ;प्रयागद्ध ;3द्ध अखाड़ा अटल ;4द्ध जूना अथवा भैरव अखाड़ा ;5द्ध अखाड़ा आनन्द ;6द्ध अखाड़ा अग्नि ;7द्ध अखाड़ा अमान ;इस अखाड़े में बड़े शूरवीर हो गए हैं, जिन्होंने समय-समय पर हिन्दू ध्र्म की रक्षा विध्र्मियों से की है।द्ध दशनामियों के मण्डलेश्वर बड़े विद्वान्, सदाचारी, नैष्ठिक तथा आत्मवेत्ता होते आए हैं। आज भी उनकी विद्वत्ता की धक मानी जाती है। संन्यासियों की ये व्यापक संस्थाएं आचार्य शंकर की दूरदर्शिता को भलीभांति सि( करती हैं। आदि शंकराचार्च द्वार लिखित ग्रंथों को हम चार भागों में बांट सकते हैं- ;कद्ध भाष्य ग्रंथ ;खद्ध स्तोत्रा ग्रंथ ;गद्ध प्रकरण ग्रंथ ;घद्ध तंत्रा ग्रंथ। भाष्य ग्रंथें को दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है- ;अद्ध प्रस्थानत्रायी का भाष्य और ;बद्ध इतर ग्रंथों के भाष्य।
आचार्य शंकर के वेदान्त मतानुसार व्यष्टि और समष्टि में कोई अन्तर नहीं है। ‘’व्यष्टि का अभिप्राय है व्यक्ति विशेष का शरीर और ‘समष्टि’ का आशय है समूहात्मक जगत्। वेदान्त तीन प्रकार का शरीर मानता है- स्थूल, सूक्ष्म और कारण। इसके अभिमानी जीव के तीन नाम है। स्थूल शरीर का अभिमानी जीव ‘विश्व’, सूक्ष्म का अभिमानी ‘तैजस्’ तथा कारण का अभिमानी ‘प्राज्ञ’ कहा जाता है। इसी प्रकार समष्टि के स्थूल शरीर के अभिमानी को विराट् ;वैश्वानरद्ध, सूक्ष्म के अभिमानी को सूत्रात्मा ;हिरण्यगर्भद्ध और समष्टि के कारण शरीर के अभिमानी को ईश्वर कहा जाता है। अद्वैत वेदांत के अनुसार ‘व्यष्टि’ और ‘समष्टि’ के अभिमानी पुरूष सर्वथा अभिन्न हैं। आत्मा इन तीनों से स्वतंत्रा सत्ता है। अद्वैतसि(ान्त के प्रतिपादन के लिए आचार्य शंकर तीन सत्ताएं स्वीकार करते हैं- ;1द्ध प्रातिभासिक सत्ता ;2द्ध व्यावहारिक सत्ता और ;3द्ध पारमार्थिक सत्ता। आचार्य शंकर मायावाद के व्यवस्थापक थे और जगत् को मायिक तथा स्वप्नवत मानते थे।
आचार्य शंकर उद्भट पंडित थे। उनमें विशेषता यह थी- एक बार भी जो अध्ययन अथवा श्रवण कर लेते थे, वह सदैव के लिए उनके मानस पटल पर अंकित हो जाती थी। उन्होंने तीन वर्ष की अल्पायु में अपनी मातृभाषा, मलयालम का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया था, आठ वर्ष की आयु में वे समस्त वेदों में पारंगत हो गए थे और सोलह वर्ष की आयु में उन्होंने प्रस्थानत्रायी ;उप-निषद्, ब्रह्मसूत्रा और श्रीमद्भगवद्गीताद्ध पर विलक्षण भाष्य रचना की थी। स्वामी विवेकानन्द जी ने उनके संबंध् में अपना उद्गार इस प्रकार अभिव्यक्त किया है, इस सोलह वर्ष के बालक के लेख से आध्ुनिक सभ्य जगत् विस्मित हो गया है।य्
बलविन्दर ‘बालम’ गुरदासपुर
ओंकार नगर, गुरदासपुर ;पंजाबद्ध मो.ः 98156-25409



Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ