ऋषि परम्परा के स्तम्भ भगवान परशुराम
ब्रह्म शक्ति के बिना क्षात्र शक्ति पुष्ट नहीं हो सकती। क्षात्र शक्ति के बिना ब्रह्म शक्ति वृद्धि को प्राप्त नहीं होती। दोनों के पारस्परिक सहयोग से ही कल्याण सम्भव है। त्रेता युग में ऐसा समय आया था जब क्षात्र शक्ति आतताई का रूप धारण कर गई थी। कार्तवीर्य पराक्रमी प्रतापी राजा था। भगवान दत्तात्रेय की तपस्या एंव शक्ति से उसने अमोद्य शास्त्रों को प्राप्त किया था। शस्त्रबल के कारण अभिमानवश वह साधु-संतों का दमन करता था। लोभ तथा अभिमानवश उसने परम तपस्वी महर्षि जमदग्नि का बध, कानदुधा, कामधेनु गौ का अपहरण, ऋषि पत्नी को संताप देना आदि ऐसे घृणित कार्य किए जो सर्वधा असहय थे। उस का अंत कर के धराधाम पर धर्मस्थापित करने हेतु पारब्रह्म परमात्मा की सत्ता भगवान परशुराम में प्रदेशावतार के रूप् में अवतरित हुई। फिर तो भगवान परशुराम महाराज ने राजा कार्तिवीर्य तथा उसकी अक्षोंहपी सेना का अकेले ही युद्ध कर के संहार कर के विजय श्री प्राप्त किया। कहते हैं कि इन की माता रेणुका ने पिता जमदग्नि के वियोग में 21 बार वक्ष-प्रताड़न किया था। अतः इक्कीस ही बार दुष्ट राजाओं का बध कर के पृथ्वी को आतंक-मुक्त किया। भगवान परशुराम के ऋषित्व इस में है कि उन्होंने इक्कीस बार पृथ्वी को जीत कर भी उसे दान रूप में महर्षि कश्यप को प्रदान कर दिया। वहीं भगवान परशुराम श्री मर्यादा पुरूषोतम श्री राम चन्द्र के प्रकट होने पर अपना वैशनवी तेज़ उन्हें देकर पुनः तपस्यारत हो गए और आज भी वे चिरन्जी बन कर ज्ञान-प्रसार हेतु सचेष्ट हैं। भगवान राम को शक्ति प्रदान का उल्लेख रामायण में इस प्रकार अंकित हैः ततः परशुरामस्य देहान्तिर्गत्व वैष्णवभ्। पश्यतां सर्व देवानां तेजो राममुयागमत्।
भगवान परशुराम का जन्म ब्रह्मा जी के मानस पुत्रों में महर्षि भृगु परम तपस्वी प्रतापी, ब्रह्म ज्ञानी महापुरूष थे। उन्हीं के वंश में से ही तेज़ महर्षि जमदग्नि उत्पन्न हुए, जिन का विवाह परम तपस्विनी रेणुका से हुआ। इन के चार पुत्रों-सुषेण, वसुमान, विश्वावसु तथा राम में कनिष्ठ पुत्र रामे ही भगवान शंकर की घोर तपस्या के वरदान रूप ‘परषु’ जैसे दिव्यगन को प्राप्त कर के परशुराम के नाम से विख्यात हुए। भगवान परशुराम ऋषि, ब्रह्म विद्या तथा शास्त्र विद्या में पारंगत, महान पराक्रमी, तेज़स्वी, ऋद्धि-सिद्ध के दाता, विप्र समाज के अग्रगण्य तपोनिष्ठ अग्रजन्मा प्रवेशायतन थे, जिन के व्यक्तिव में भक्ति तथा शक्ति दोनों का समन्वय प्रसक्ष-आभासित होता है। भगवान परशुराम का व्यक्तित्व-तपः पूत भगवान परशुराम जी के व्यक्ति का परिचय इस श्लोक से हो जाता है।
अग्रतवतुरो वेदाः पष्ठतः सशंर धनु। इंद ब्राहमं द इदे क्षात्रं शापादीप शारादीप। चारों वेदों की उपस्थिति में अग्रगण्य, पृष्ठ पर धनुष एंव तुगीर धारण किए ब्रह्म ज्ञान एंव शास्त्र ज्ञान से मण्डित, परम तापसी शक्ति के प्रभाव से शाप देने की क्षमता एंव शस्त्र विद्या में पारंगत होने से रण्ड-विधान द्वारा राज्य शासन को व्यवस्थित करने की क्षमता के धनी थे परशुराम। ऐसा ही महापुरूष अपनी कर्तव्यनिष्ठा से देव, ऋषि तथा पितृ-ऋण से मुक्त परम विभुति देव होता है। पिता की आज्ञा से माता का शिरच्छेद तथा पुनः पिता के वरदान फलस्वरूप् माता को जीवित करवाना उन की मातृ-शक्ति का ही उदाहरण है।
परशुराम जी महाराज वैशास्त्र शुकल तृतीय (अक्षय तृतीया) के दिन उत्पन्न हुए थे। अक्षय तृतीय को ही सत्ययुग का आरम्भ होता माना जाता है, इस दिन किया गया दान-पुण्य अक्षय फल को देने वाला होता है। वाल्यावस्था से ही परशुराम अनपरत साधना में लगे रहे। आजीवन ब्रह्मचर्य तथा गहन तपः साधना के प्रभाव से वे अमरत्य को प्राप्त कर के अभी भी चिरन्जीवियों में प्रख्यात हैं अश्वत्थामा वलिव्यसियों अनुमांश्र विभीषण। कृपा परशुरामश्व सत्तैते चिरन्जीवन। वीरता, धीरता, साहस, कर्मनिष्ठा, आत्मविश्वास एंव परमार्थ उनके चरित्र की विशेषताएं हैं। 21 बार पृथ्वी को जीत कर भी उन्होंने अपने लिए एक कुटिया तक नहीं बनाई। वास्तव में अवतारी महापुरूष वही होता है जो जितना अपने लिए समाज से लेता है उससे कई गुणा कर के समाज को दे देता है। वे चाहते तो सारी पृथ्वी का निरंकुश राज्य भोग सकते थे, परन्तु उन्होंने अपने लिए कुछ भी नहीं चाहा और अभी भी महेन्द्राचल पर्वत पर किसी कन्दरा में तपः पूत अवस्था में रह रहे हैं। भगवान परशुराम का कण्टक शोधनात्मक कार्य नितांत विलक्षण था। भगवान श्री राम ने ताड़का, सुबाहु, मारीच, बाली, खरदूषण, रावण आदि राक्षसों का संहार किया। कृष्ण लीलाओं में भी एकाकी-दानव संहार की प्रमुख है। एकमात्र भगवान परशुराम ही ऐसे अवतार हैं जिन्होंने समय एकाकी होते हुए बड़ी-बड़ी चतुरंभीषी सेनाओं से समृद्ध दुष्ट राजाओं को 21 बार आमने सामने के संग्राम में यमलोक पहुंचाया। दूसरा यह है कि राम, कृष्ण आदि अवतारों ने क्रमशः सीताहरण तथा माता पिता को दी गई यातनों के लिए अर्थात् निजी अपराध के प्रतिवधि रूप् में शत्रुओं को मारा किन्तु भगवान परशुराम ने मानवता की रक्षा हेतु 21 बार दुष्टों का संहार किया। भगवान परशुराम की शक्ति का अनुमान इस घटना से लगाया जा सकता है कि जिस रावण को मारने के लिए भगवान राम को कितनी सेना को तैयार करना पड़ा, उसी रावण की सहस्त्रवाहु कार्तवीर्य ने अपने घुड़शाला में कई वर्ष कैद कर रखा और उसी कार्तवीर्य को भगवान परशुराम ने अकेले ही यमलोक पहुंचा दिया। यह है उनकी अपार शक्ति का निर्देशन। भगवान परशुराम से सबंधित पूर्व अजर दाक्षेण समस्त भारत में तीर्थों के रूप में तपः पूत स्थान आज भी उनकी महिमा को प्रदर्शित कर रहे हैं। पूर्वोतर के असम में ब्रह्मपुत्र-स्त्रोत पर बने ब्रह्म कुण्ड, दक्षिण में केरल की भूमि को सागर से परशु द्वारा व्यस्त कर के नम्बूदरी वंष की स्थापना, राजस्थान में परशुराम टीला, उत्तर में हिमाचल में रेणुकाताल तथा पंजाब में फगवाड़ा के पास खाटी नमक ऐतिहासिक स्थान का विशेष महत्व है।
आज की परिस्थिति में भगवान परशुराम, महर्षि वाशिष्ट, राजनीति विशारद चाणक्य का अनुसरण करता हुआ तप त्योग पर आधारित चरित्रवाण जीवन का निदर्शन प्रस्तुत कर पाता। भगवान परशुराम अपनी अर्हतुकी कृपा से हमें इस उ६ेश्य की पूर्ति में सहायक बने। इसी प्रार्थना कामना से उनके श्री चरणों में कोटि-कोटिः नमम।
बलविन्द्र ‘बालम’ ओंकार नगर, गुरदासपुर (पंजाब) मोबाईल 9815625409
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