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शहीदों के अद्वितीय सिरताज: गुरू अर्जुन देव जी

 

14 जून के लिए विशेष
शहीदों के अद्वितीय सिरताज: गुरू अर्जुन देव जी
श्री गुरू अर्जुन देव जी का नाम इतिहास में सूर्योदय की भांति सदैव चमकता रहेगा। उन्होंने अपने नियमों, अनुशासन, पंथ तथा ध्र्म के लिए जो शहीदी दी वह बेमिसाल है। भारत में ही नहीं अपितु सारे विश्व में उनकी शहीदी बेमिसाल रहेगी। दुनियां के किसी भी व्यक्ति ने आज तक इतने दुःख, कष्ट और यातनाएं झेल कर अपने राष्ट्र की खातिर, देश-ध्र्म की खातिर शहीदी नहीं दी। इस तरह की शहीदी का ज़िक्र हमेशा-हमेशा श्री गुरू अर्जुन देव जी के साथ जुड़ा रहेगा। वह सहनशीलता के समन्दर, वाहिगुरू ;प्रभुद्ध की कृपा में रहने वाले बुलन्द कर्मज् इरादे, संझीवालता के पथ-प्रदर्शक, संतुलित मस्तिष्क एवं इन्सानियत के पुजारी थे। ज़ुल्म के आगे डट जाने वाले निर्भीक हृदय के गगन, जिसमें लाखों कोटि-कोटि चांद-सितारे चमकते थे मुहब्बत के, उद्यम के, इन्सानियत के। श्री गुरू अर्जुन देव जी मानवता को, राष्ट्र को एक ऐसा ‘गुरू ग्रन्थ’ के गए हैं जिसमें अनेकानेक ही सूर्यो की रोशनी एकत्रित करके एक महान ग्रन्थ की संपादना की और अपने आप को सूर्य की भान्ति अमर कर लिया। सिख जगत में इसकी बहुमूल्य महानता है। श्री गुरू अर्जुन देव जी ने श्री गुरू ग्रन्थ साहिब की संपादना इन्सानी कदरों-कीमतों की मद्देनजर रख कर ही की थी। इस ग्रन्थ का कोई भी श्लोक पढ़ लिया जाए वह इन्सानी कदरों-कीमतों से बाहर नहीं जा सकता। वाहेगुरू, सत्ना, एक-ओंकार इसी के मूल स्त्रोत हैं। इस महान ग्रन्थ की अपेक्षा तथा कुछ राजनीतिका कारणों से ही उनको शहीदी का जाम पीना पड़ा।
श्री गुरू अर्जुन देव जी का जन्म 15 अप्रैल, 1563 को सोढ़ी वंश में श्री गुरू राम दास जी के गृह में माता भानी जी की कोख से श्री गोएंदवाल साहिब, अमृतसर ;पंजाबद्ध में हुआ। शादी के काफी अर्से बाद उनको पुत्रा-रत्न की प्राप्ति हुई जो छठे गुरू श्री हरिगोबिन्द साहिब जी के नाम से विख्यात हुए। इस पुत्रा पर जन्म से ही कई भूमिगत कष्ट होते रहे। श्री गुरू अर्जुन देव जी के बड़े भाई पृथ्वी उनसे दुश्मनी रखते थे। वह गद्दी एवं ध्न का लालची था। घर का सारा प्रबन्ध् पृथ्वी के हाथों में था परंतु आदतन वह एक अच्छा इन्सान नहीं था। पृथ्वी के पिता इसी कारण उसको पसन्द नहीं करते थे। श्री गुरू अर्जुन देव जी के कई पत्रा जो उन्होंने विरह में पिता जी को लिखे थे उन्हें पृथ्वी चुरा लेता था। बाद में उसकी यह चोरी पकड़ी गई जिससे वह शर्मिन्दा हुआ। इस संताप के साथ-साथ श्री गुरू अर्जुन देव जी अच्छी कविताएं भी लिखते रहे। उनकी कविताएं आध्यात्मिक पक्ष को उजागर करती थीं। वह कई भाषाओं के ज्ञाता थे जैसे कि हिन्दी, संस्कृत, पंजाबी, फारसी, बृज, मुल्तानी, केन्द्री पंजाबी एवं पंजाबी की बोलियां इत्यादि। उनकी मेहनत, मोह, त्याग, निष्काम सेवा, आध्यात्मिक रूचि इत्यादि को देखते हुए उनके पिता जी ने उनको गद्दी की बख्शीश देने का प्रण ले लिया। वह सितम्बर 1581 को गुरूयाई गद्दी पर विराजमान हुए। श्री गुरू अर्जुन देव जी के तीसरे भाई का नाम बाबा महादेव था।
श्री गुरू अर्जुन देव जी कुछ समय अमृतसर में रह कर:गुरू की वडाली’ चले गए। वहां गुरू हरिगोबिन्द जी का जन्म हुआ था। फिर अमृतसर आ कर अमृत सरोवर को पक्का करवाया। हरिमन्दिर साहिब ;अमृतसरद्ध का निर्माण किया। संतोखसर बनवाया, तरनतारन बनवाया तथा वहां के सरोवर की नींव रखी। करतारपुर, छहरटा साहिब और हरिगोबिन्दपुर भी बसाया। लाहौर की बाऊली का निर्माण किया। रामसर तथा गुरू के बाग की नींव रखी। वह निर्माण कार्यों में काफी दिलचस्पी रखते थे।
श्री गुरू अर्जुन देव जी की दीर्घ प्राप्ति थी श्री गुरू ग्रन्थ साहिब की संपादना जो 1601 से लेकर 1604 तक रामसर के किनारे बैठ कर गुरू ग्रन्थ साहिब की हस्त लिखित ;पांडुलिपिद्ध तैयार की। इस ग्रन्थ में प्रत्येक ध्र्म, जाति-पाति से रहित, भक्तों, संतों तथा गुरूओं की बाणी शामिल है। जाति-पाति, ध्र्म, रंग-नस्ल से ऊपर उठ कर ही इस ग्रन्थ की संपादना की। समस्त भारत के विभिन्न राज्यों के कवियों की रचनाएं शामिल हैं। राष्ट्र को एक विलक्षण आध्यात्मिक ग्रन्थ दिया। भाई गुरदास जी ने इस ग्रन्थ को अपने हाथों से लिखा। इसका प्रकाश 1604 को हरिमन्दिर साहिब अमृतसर में किया गया।
इस महान ग्रन्थ लिखने पर कई ईष्र्यालुयों ने बहुत विरोध्ता की क्योंकि वे कविगण जो इस ग्रन्थ की मर्यादा के अनुसार पूरे नहीं उतरते थे उनकी रचनाएं शामिल नहीं की गईं। उन कवियों ने ईष्र्या करके इस ग्रन्थ की डट कर विरोध्ता की तथा उनके बड़े भाई पृथ्वी ने इस विरोध्ता को और भड़काया। भक्त कान्हा, छज्जू, पीलू एवं शाह हुसैन जैसे कवियों का कलाम शामिल नहीं किया गया। इन कवियों ने ईष्र्या करके वर्तमान सत्ताधरी हकूमत के मालिक जहांगीर तक गलत बातें पहुंचाने में कोई कसर न छोड़ी। जहांगीर ने इस ग्रन्थ के कई पन्ने पढ़ा कर देखे परंतु उसको कहीं भी इस्लाम ध्र्म के विरू( कोई चिन्ह तक न मिला। दूसरी तरफ सबसे ज्यादा कट्टðर मुस्लमान वजीन थे शेख अहमद सरहद्दी तथा शेश फरीद बुखारी। इन दोनों ने इस ग्रन्थ की सबसे ज्यादा विरोध्ता की। जहांगीर को भड़काया गया कि इस ग्रन्थ में इस्लाम के विरू( लिखा गया है। चन्दू शाह जो कि लाहौर में सूबे का दीवान था वह भी गुरू जी से दुश्मनी रखता था और पृथ्वी की भी इस में साज़िश थी।

चन्दू ने अपनी बेटी की शादी गुरू जी के बेटे के साथ करनी चाही परंतु चन्दू ने कहीं यह कह दिया कि कहां चन्दू और कहां गुरू? मोरी की ईंट जैसे प्रतीकों का प्रयोग किया। संगत ने चन्दू की विरोध्ता की तथा संगत के कहने पर गुरू जी ने इस शादी के लिए न कह दी। चन्दू का क्रोध् सातवें आसमान को छू गया। उसके सीने में बदले की चिन्गारी सुलगने लगी। चन्दू शाह, शेख अहमद सरहद्दी तथा शेख फरीद बुखारी ने कई किस्म की साज़िशें गुरू अर्जुन देव जी के विरू( शुरू कर दीं। एक झूठी साज़िश बना कर जहांगीर को पहुंचा दी गई कि बाग़ी खुसरो को गुरू जी ने पनाह दी है, उसकी मदद की है। उसकी मर्यादा अनुसार उसका अभिनन्दन किया है और इस्लाम के खिलाफ भड़काया है। शेख अहमद सरहद्दी तथा शेश फरीद बुखारी इत्यादि ने यह साज़िश एक फर्ज़ी शिकायत बना कर जहांगीर तक पहुंचा दी। गुरू जी ने खुसरों की कोई सहायता नहीं की थी। सारी साज़िश झूठी थी। खुसरो को पनाह देने पर जहांगीर ने गुरू जी को दो लाख रूपए ज़ुर्माना कर दिया। ज़र्माना अदा न करने पर सपरिवार आपको गिरफ्रतार कर लिया गया। तीन रातें तथा तीन दिन अत्यंत यातनापूर्वक कष्ट दिए गए, जून की कड़कती ध्ूप में। जलती लोहे की चादर पर गुरू जी को बिठाया गया जिसके नीचे आग ही आग की लपटें थीं तथा ऊपर से गर्म रेत की बौछार। इस पर भी गुरू जी तनिक भी घबराए नहीं। बेशक मीयां मीर तथा बज़ीर खां दरबारी धर्मिक नेता सिखी के दायरे में आ चुके थे। उन्होंने लाहौर की ईंट से ईंट खड़काने का कहा। यह दृष्य देखने वालों के हृदय कांप उठे परंतु गुरू जी उस वाहेगुरू की कृपा में विश्वास रखते हुए तपती लौह पर बैठ गए। गुरू जी को पानी की उबलती देग में रखा गया।
30 मई 1606 को जहांगीर के हुक्म से रावी दरिया के छोर पर ले जाकर गुरू जी को शहीद कर दिया गया। आपकी याद में अब वहां डेरा साहिब गुरूद्वारा बना हुआ है। दुनियां में यह एक महान शहादत है। इससे कुछ समय बाद बेशक जहांगीर मुआफी मांगने माता गंगा जी के पास आया तथा चन्दू जैसे साज़िशी को उनके सुपुर्द भी किया परंतु माता गंगा जी ;पत्नी श्री गुरू अर्जुन देव जीद्ध ने उसे प्रभु के भरोसे पर छोड़ दिया। जहांगीर ने कुछ मोहरें चढ़ाईं जिन्हें संगत में बांट दिया गया। गुरू जी ने एकता, सांझीवालता, जाति-पाति एवं रंग-रूप से ऊपर उठ कर शब्दों की रचना की। उनके एक शब्द की पंक्ति जो मानवता के रास्ते खोलती है इस तरह हैः-कोई बोले राम-राम, कोई खुदाए। कोई सेवे गोस्सईया कोई अल्लाहे।।य्
श्री गुरू अर्जुन देव जी ने 30 रागों में बाणी की सृजना की। शब्द 1345, अष्टपदियां 62, छन्द 62, गुरू ग्रन्थ साहिब जी की कुल 32 वारों से गुरू जी की 6 वारें, गाऊड़ी, गुजरी, जयतंसरी, रामकली, मारू एवं बसन्त रागों में है। इनके अतिरिक्त गुरू जी ने विशेष बाणियां भी लिखीं। श्री राम में पहरे, शब्द मारू में बारह माह, 14 पाऊढ़ियां। गाऊड़ी में 52 अक्षरी 57 श्लोक तथा 55 पाऊड़ियां, सुखमनी 14 श्लोक तथा 24 अष्टपदियां, आसा में बिहरड़े 3 शब्द। सूही में एक शब्द, एक मारू में, अंजुलियां 3, सोहले 14 शब्द। कुछ और बाणियां गुरू अर्जुन साहिब श्लोक सहसकृति 67, गाथा 24, फनहे, स्वैए। श्लोक 255 हैं। कुल मिला कर 277 श्लोक, 6 वारें, 110 पाऊड़ियां इत्यादि। कुल 2312 शब्द हैं। साहिब श्री गुरू अर्जुन देव जी 43 वर्ष, एक महीना, 15 दिन की आयु सम्पूर्ण करके शहीद हुए। उन्होंने उतनी छोटी आयु में वे कार्य किए जो सदैव भारत के इतिहास में ही नहीं अपितु विश्व के इतिहास में सुनहरी अक्षरों में जीवन्त रहेंगे। वह शहीद होकर भी जिन्दा हैं।
बलविन्दर ‘बालम’ गुरदासपुर
ओंकार नगर, गुरदासपुर ;पंजाबद्ध
मो. 98156-25409


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