ग़ज़ल
ज़ुल्म आगे भड़कती ढाल है तलवार है पगड़ी
मगर मज़लूम लोगों के लिए सत्कार है पगड़ी
लहू भीगे रचित इतिहास की तलवार है पगड़ी
गुरू के बाटे-अमृत का ध््रुव इकरार है पगड़ी
क्रांती के लिए उठती न्याय की है प्रतिबदता
गुरू की लाडली सिक्ख फ़ौज का सत्कार है पगड़ी
उठे थे पांच प्यारे कौम की ज़िद जान बन बन कर
शहीदी के लिए इन्साफ़ का इकरार है पगड़ी
जब भी यु( के मैदानों में दलेरी से यह उठती है
या होती आर है पगड़ी या होती पार है पगड़ी
इसके भीतर क्रांती है, है अनुशासन, शहीदी है
यही सिक्खी का सूत्राधर सभ्याचार है पगड़ी
हज़ारों ताज लाखों तख़्त इसके आगे फीके हैं
ज़माने में विल्क्षण प्यार का किरदार है पगड़ी
ज़िम्मेवारी निभाती है न्याय की परख करती है
बहू बेटी की इज्ज़त की भी पहरेदार है पगड़ी
विवाह शादी के अवसर पर बहुत जंचती, बहुत जंचती
सिरों की शान शगनों में तो बंदनवार है पगड़ी
सिरों का ताज है और फर्ज़ का सच्चा तराज़ू है
किसी के काम न आए तो फिर बेकार है पगड़ी
चलो माना ज़ुल्म के वासते यह सिर को मांगे है
मगर यह तरल है इतनी सुमन का हार है पगड़ी
इसी के बीच है सतिनाम और वाहिगुरू बाणी
इसी करके गुरू के नाम का भंडार है पगड़ी
सहारा बेसहारों का, है ध्ैर्य में झुकाए सिर
न्याय को पूजती और मारती हंकार है पगड़ी
बिगानी पत की इज्ज़त भी रखती है कलेज़े में
तबी तो हर किसी के वासते सत्कार है पगड़ी
किसी भी वक़्त इसकी परख दुशमन भी है कर सकता
लड़ों में झांकती हिम्मत की इक ललकार है पगड़ी
इसी में शक्तियों और भक्तियों की ज्योत जगती है
यह बेशक देखने को लगती इक कचनार है पगड़ी
इसे ऐसे ममूली वस्त्रा भी तो समझ न लेना
कहीं फांसी का फंदा है कहीं तलवार है पगड़ी
कोई भी आदमी हो जो कि अमृतपान करता है
वही सरदार होता है वही सरदार है पगड़ी
हथेली पर टिका कर सर लगाए पार कश्ती को
मुसीबत के समय लहरों में खेवनहार है पगड़ी
हज़ारों घर जगाए पर ज़ुल्म जो बाझ ना अए
जड़ों से फूक देवे है बल्ब की तार है पगड़ी
जन्नत की आभा मण्डल आनंदपुर का दरबार।
ढोलक ढोल मंजीरे पायल होली का त्योहार।
‘बालल’ गुलशन के आँगन में फूलों के सबरंग।
सब ध्र्मों के मेले सब ध्र्मों के संग।
भारत की उत्त्तमोतमता में यह शुचिता श्रृंगार।
ढोलक ढोल मंजीरे पायल होली का त्योहार।
बलविन्दर ‘बालम’ गुरदासपुर
ओंकार नगर, गुरदासपुर ;पंजाबद्ध मो.ः 98156-25409
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