Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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घूमें है घर बाहर कलन्दर

 

घूमें है घर बाहर कलन्दर फिर भूखे का भूखा मन।
बूढ़ा होकर भी यह अदना एैसे रहता है जैसे,
मार टपूसी बैठा बन्दर फिर भूखे का भूखा मन।
क्या-क्या पीता अगर बताऊँ, मुँह में उँगली आवे है,
शाम ढ़ले को भोले शंकर फिर भूखे का भूखा मन।
अंत्तिम साँसों में रह कर भी भौतिकता को फिर ढूँढ़े,
पी कर अमृत, ज़हर, समन्दर फिर भूखे का भूखा मन।
‘बालम’ आँखों-आँखों से ही भिन्न-भिन्न सुन्दरता,
टुकता रहता जैसे छछून्दर फिर भूखे का भूखा मन।
बलविन्दर ‘बालम’ गुरदासपुर
ओंकार नगर, गुरदासपुर ;पंजाबद्ध
एडमिंटन, कनेडा वाॅट्सऐप 98156-25409
मौलिक तथा आप्रकाश्ति रचना-ब. बालम

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