14 अप्रैल के लिए विशेष
मानवता के मसीहा-डाॅ. भीमराव अम्बेदकर
जो पुरूष अंध्ेरे में रहकर समाज को रौशनी देता है वह सूर्य कहलाता है। कर्मठ दरिया जब रास्ता बनाते हुए, संघर्ष में बहते हुए खेतों में बहते हैं तो हरिआली पैदा करते हैं। बीज को फूटने के अवसर प्रदान करते हैं, यहीं तो है ज़िंदगी। डाॅ. भीमराव अम्बेदकर को मानवता का मसीहा कहना उचित है। उनका सम्पूर्ण जीवन संघर्षों की एक लम्बी दासतां है। संघर्ष अपने लिए नहीं अपितु समाज के निम्न वर्ग के लोगों के लिए किया। ऐसे लोगों को उनके अध्किार दिलाने के लिए जो सहासों वर्षों तक समाज की खोरवली मान्यताओं रूढ़ियों तथा ध्र्मान्ध्ता के कारण अपने अध्किारों से वंचित थे। जाति-पांति, ऊंच-नीच तथा वर्ण भेद के कारण लाखों लोग जो न केवल प्रगति के पथ पर प्रथम कदम भी न चल पाए थे, बल्कि जिनके साथ बुरा व्यवहार किया जाता था। वर्ण भेद, ऊंच-नीच की दीवारें इतनी ऊंची तथा मज़बूत थीं कि इनको गिराना असम्भव था। डाॅ. भीमराव अम्बेदकर ने इस दीवार पर गहरा प्रहार किया। वह लाखों असहाय-निधर््न-निम्नतम श्रेणी के लोगों की आवाज़ थे। उन्होंने उनका नेतृत्त्व किया तथा उनमें एक नईं क्रान्तिकारी रौशनी पैदा की और समाज की विषमता का विषपान करके जीवित सुकरात बनकर जिए।
भीमराव अम्बेदकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को श्रीमति भीमा भाई की कोख से हुआ। आपके पिता सूबेदार श्री राव जी दास महाराष्ट्र के रतनागिरी जिले में अंबाबड़े गांव के रहने वाले थे। उनके पिता जी मराठी, गणित तथा अंग्रेजी के अच्छे ज्ञाता थे। घर का वातावरण धर्मिक था और परिवार में कबीर पंथी उदार विचारों का पूरा प्रभाव था।
बालक भीम को विद्यार्थी जीवन में ही छुआछूत के कटु अनुभवों से गुजरना पड़ा। एक बार की बात है, बालक भीम भंयकर वर्षा से बचने के लिए एक मकान के प्रांगण में खड़ा था। स्वर्ण जातीय मकान मालिक को जब बालक की जाति का पता चला तो उसने उसको बस्ते सहित बरसात के कीचड़ में ध्केल दिया। बालक भीम को एस प्रकार के अनेक अपमान सहने पड़े। नाई उसके बाल नहीं काटता था और अध्यापक उनको संस्कृत पढ़ाने को तैयार नहीं थे। वह मेघावी छात्रा थे परंतु उन्हें यह सब सहना पड़ता थ्ािा परंतु इससे उनका साहस, ध्ैर्य, बल और मज़बूत हुआ। मुश्किलों, मुसीबतों तथा समाज के दुव्र्यवहार ने उनको उस सोने की भांति बना दिया था जो आग में तपकर कुन्दर बन जाता है। उनके अंदर आत्त्मविश्वास, आत्त्मबल, दृढ़ता उत्पन्न हुई और बवचन में ही फौलादी इरादा बना लिया कि वह छुआछूत के कलंक के विरू( संघर्ष करेंगे। साध्नों की कमी तथा मुश्किलें कभी भी उनके इरादों को बदल न सकीं। जब पिता सेवानिवृत हुए तो समस्त परिवार एक ही कोठरी में रहता था और वहीं पर रात को जब सभी पारिवारिक सदस्य सो जाते वह छोटा सा बच्चा ;भीमद्ध जागकर पढ़ना आरम्भ कर देता।
सन् 1907 में मैट्रिक तथा 1912 में बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। उनकी विद्वता तथा विवेकता को देखकर 1913 में बड़ौदा के महाराज ने उन्हें बज़ीफा देकर उच्चशिक्षा के लिए अमेरिका भेजा। वह 1913 से 1917 ई. तक अमेरिका और इंग्लैंड रहे। उन्होंने अर्थशास्त्रा, राजनीति शास्त्रा और कानून का गहन अध्ययन किया और पी.एच.डी. की डिग्री प्राप्त की। वह बड़ौदा के महाराज के प्रशासन में सैनिक सचिव के पद पर नियुक्त हुए परंतु कार्यालय में कटुव्यवहार के कारण, छुआछूत के अभिशाप के कारण उन्होंने यह पद छोड़ दिया। वकालत का पेशा अपना कर उन्होंने निम्न वर्ग के कल्याण के लिए कार्य आरम्भ कर दिए। सामाजिक समतावाद की आज़ादी, सामंतवाद, निम्न वर्ग की विद्या के लिए संघर्ष तेज़ किए। 1927 में डाॅ. अम्बेदकर बम्बई ;मुब्बईद्ध विधन परिषद के लिए चुने गए। इसी दौरान उन्होंने कई उच्च पद पाए तथा बहुत सी पुस्तकों की रचना की। इसी बीच गांध्ी जी तथा अन्य राष्ट्रीय नेताओं ने भी समाज से छुआछूत के कलंक को मिटाने का प्रयास प्रारम्भ कर दिया था। भारत स्वतंत्रा होने पश्चात, आपको सविधन की रचना का कार्यभार सौंपा गया। उनकी अध्यक्षता में न केवल सविधन की रचना हुई बल्कि कानूनन जात-पात की समाप्ति की नींव रखी गई।
स्वतंत्रा भारत के वह प्रथम कानून मंत्राी बने। उनका विश्वास बु( ध्र्म पर अटूट था। वे महात्मा बु( के प्रशंसक थे तथा बौ( ध्र्म को ग्रहण कर लिया था।
डाॅ. भीमराव अम्बेदकर को सच्ची श्र(ाजलि यही हो सकती है कि सभी को योग्यता के अनुसार समाज में, जीवन में मान-सम्मान मिले।
बलविन्दर ‘बालम’ गुरदासपुर
ओंकार नगर, गुरदासपुर ;पंजाबद्ध मो.ः 98156-25409
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