सार छंद "टेसू और नेता"
ज्यों टेसू की उलझी डालें, वैसा है ये नेता।
स्वारथ का पुतला ये केवल, अपनी नैया खेता।।
पंच वर्ष तक आँसू देता, इसका पतझड़ चलता।
जिस में सोता कुम्भकरण सा, जनता का जी जलता।।
जब चुनाव नेड़े आते हैं, तब खुल्ले में आता।
नव आश्वासन की झड़ से ये, भारी शोर मचाता।।
ज्यों बसंत में टेसू फूले, त्यों चुनाव में नेता।
पाँच साल में एक बार यह, जनता की सुधि लेता।।
क्षण क्षण रूप बदलता रहता, गिरगिट के ये जैसा।
चाल भाँप लोगों की पहले, रंग दिखाता वैसा।।
रंग दूर से ही टेसू का, लगता बड़ा सुहाना।
फिर तो उसका यूँ ही झड़ कर, व्यर्थ चला है जाना।।
एक लक्ष्य इस नेता का है, कैसे कुर्सी पाये।
साम, दाम जैसे भी हो ये, सत्ता बस हथियाये।।
चटक मटक ऊपर की ओढ़े, गन्ध हीन टेसू सा।
चार दिनों की शोभा इसकी, फिर उलझे गेसू सा।।
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