Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

आषाढ़ी संध्या घिर आई

 
   
श्याम रंग घन नभ में छाया
आषाढ़ का मास सघन हो आया
वर्षा का परिचित स्वर सुनकर
नाच रहा मन झूम-झूम कर
पादप-विटप लता-तरुओं पर
दूर-दूर बिखरे-सूखों पर
उमड़-घुमड़ कर मेघ ये बरसा
प्यासी धरती का मन हर्षा
घिरे हुए है घन कजरारे
मनमोहक सुन्दर ये नज़ारे
झड़ी लगी है कितनी मनहर
बरस रहे हैं बादल झड़-झड़
बारिश के मनभावन पल में
विरहानल है कोलाहल में
दामन छूकर पवन झकोरे
उन्माद भर रहा मन में मेरे
चंचल मन पंछी सा चहके
उर-उपवन में सुमन सा महके
अभिलाषा है इन नैनन की
मोहक माया देखूं प्रकृति की
कम्पित होता है अंतर्मन
होता है कुछ ह्रदय में पुलकन
शर्माती सकुचाती आई
भाव अनेकों जगाती आई
श्यामल नेह लुटाती आई
आषाढ़ी संध्या घिर आई.
भारती दास ✍️

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ