नव किसलय को कंठ लगाते
सुबह सवेरे विहग ये सारे
बहुरंगी पंखों को पसारे
एक स्वर से चिढा-चिढाकर
मंद-मंद मुस्का-मुस्काकर
कोलाहल करते रहते हैं
मखौल उड़ा-उड़ा हंसते हैं
सड़कें गलियां बंद हुये हैं
पशु पक्षी स्वछंद हुये हैं
मानव पिंजरबद्ध हुये हैं
खत्म गुमान और दंभ हुये हैं
पर्यावरण का कोना-कोना
निखर गया है रुप सलोना
गंगा प्रदूषण मुक्त हुयी है
पुण्य सलिला स्वच्छ हुयी है
सीख सदा हरवक्त मिली है
कर्म अनैतिक दुखद हुयी है
छाया है पुष्पों पर खुमार
तरूण भ्रमर करते गुंजार
मुग्ध प्रकृति इठलाती अपार
शुद्ध चमन में बहती बयार
सुरभित सुमन सुगंध बरसाते
नव किसलय को कंठ लगाते
हर्षित खग-कुल कलरव करतें
जगत हाल पर अचरज करते.
परिहास करो ना विहग बालिके
क्षण परिवर्तित होते रहते
दुख जाने पर सुख ही आते
बंद भाग्य फिर खुल ही जाते.
भारती दास ✍️
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