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Dr. Srimati Tara Singh
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पिताजी सिखलाया करते थे

 

पिताजी सिखलाया करते थे

पल बीत गया क्षण बीत गया

यादों का मंजर है ठहरा सा

पुलक भरी सुख का अनुगुंजन

हृदय के अंदर है बिखरा सा.

वो गेह कहां वो स्नेह कहां

था मुस्काता सब चेहरा सा

स्मृति से छनकर आती है

था जहां प्रेम का पहरा सा.

अब समझ में सब आता है

जो कुछ नित्य कहा करते थे

ज्ञान धर्म उत्थान की बातें

पिताजी सिखलाया करते थे.

उन्हें याद कर गदगद होते

जैसे पावन हो कथा सुहानी

निज मन ही झकझोर रहा है

नयनों में भर आता पानी.

व्यस्त रहे सुख के संचय में

भूले मद में अमृत वाणी

व्याकुल उर अब ढूंढ रहा है

उन कदमों की धूमिल निशानी.

भारती दास ✍️



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