स्वतंत्र वेग का पवन
असंख्य रेत ले उड़ा
अनेक पौध को गिरा
स्वतंत्र वेग का पवन
जहां तहां घूमा फिरा.
स्वतंत्रता सीमित रहे
सोच शुभ अडिग रहे
प्रकृति संग जीव का
जुड़े सभी घटक रहे.
सीमा हीन क्षेत्र का
उन्मुक्त ये गगन सदा
पर हितार्थ के लिए
गला तपा सर्वदा.
जरूरत मंद है मही
स्वतंत्र हो समझ यही
समस्या जो अनंत है
सदभाव पूर्ण हो सभी.
दूसरे का कष्ट भी
मानकर अपना कभी
महसूस करता जो कहीं
विचलित विकल होता वही.
देख उर करता कराह
बढ रहा मृत्यु का प्रवाह
व्यर्थ किससे क्या कहें
दर्द वेदना अथाह.
भारती दास
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