कल्पना की सीमा
सावन के पेड़ से दो-तीन बूँदे तोड़ कर
मैं सिंचना चाहता था
पतझड़ के कुछ सूखें पत्ते
बादलों से चुटकी भर आकाश छान कर
सजाने थे मुझे सूरजमुखी पर
किरणों के सुनहरे रेज़े
शिखरों से हथेली भर बर्फ़ माँग कर
बोना था मुझे सहरा में
शरद का ठंडा चाँद
गली-कूचों से गोद भर उठा लाने थे मुझे
शहर के चौराहे पर
फूल के हँसते-खेलते पौधें
गगनचुंबी इमारतों से फेंक देने थे मुझे
रातों की नींद तोड़ने वाले
टिमटिमाते तारे
पर
मैं
कुछ भी
न
कर सका…
मेरी कल्पनाओं की सीमा
मेरी कविता तक ही सीमित...
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