Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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लुप्तप्राय

 

बस कुछ ही बरसों बाद
याद की जाएगी
औरतों की वो जमात
जो सुबह से शाम
कर देती थीं
बिना कुछ करे…
जो नौकरी नहीं करती थीं
लेकिन मुँह अँधेरे
आँगन बुहारती थीं
घर को संवारती थीं।
जिनके घर में रखा मंदिर
महकने लगता था
हर सुबह ताज़े फूलों से
दीपक की लौ संग
स्फुरित होता था आशीर्वाद
और हर भोग के बाद
बँटता था प्रसाद।
बच्चों के स्कूल से लौटने पर
सेंकती थी गर्म रोटियाँ
और शाम के नाश्ते को
रखती थी तैयार
देसी घी के लड्डू-मठरियाँ।
जाड़ों की धूप में वे
सलाइयों पर बुनती थीं प्यार।
जिनके बने मीठे नमकीन
पूरन-पोली और रंगोली
सजाते थे त्योहार
जिनके आँगन और छज्जे
पुकारते थे सूर्य को
कि सुखाने होते थे
उनमें फैले पापड़-अचार।
वहाँ गुड-डे और चीतोज़ के
डिब्बे-पैकेट नहीं खुलते थे
मनुहारों में दिखता था प्यार।
कतरा कतरा रिसकर
जो सींचती थी परिवार
किंतु तरसती थी हर बार
पाने को उचित व्यवहार।

इनकी पुत्रियों के मन में
असीम स्नेह के संग
घर कर गया क्षोभ,
आर्थिक स्वतंत्रता में
देखने लगीं वे मुक्ति का द्वार।
समय के साथ
आगे बढ़कर संभालने लगी
अर्थ व्यवस्था की भी कमान
पुरुष के कंधे से कंधा मिला
चलने लगीं संग
कुछ साझे समझौते किए
अन्नपूर्णा से संपूर्णा बन
सुबह के अलार्म संग
शुरू हुई घनघनाहट
चलती सुबह से रात तलक
घर-बाहर संभालती
दौड़ती फिरती
हर मोर्चे पर…
कहीं पूरा तो कहीं
आधा दिन कमाती
सारे बिल भरती
बैंक के काम निपटाती
बच्चों का होमवर्क कराती
टीचर से मिलने स्कूल जाती
सुपर-वुमैन बनने को बेताब
दौड़ती, तो बस दौड़ती जाती
घर परिवार की ख्वाहिशों को
स्वयं होम होती जाती
जितनी पूरी करती
उतनी ही और खड़ी पाती
हाँ! उतनी ही ख्वाहिशें और पाती।
कतरे का कतरा
भी रखा नहीं खुद को
उलाहनों से
फिर भी बच न पाती।

उलाहनों की ये दरारें
भेद गयीं मन को
हुआ फिर एक और अवतार
अगली पीढ़ी की स्त्री
पहचानने लगी
अपनी शक्ति
जल, थल नभ पर
कर दिए हस्ताक्षर
किंतु खोने लगी
परंपरागत स्त्रीयोचित व्यवहार
स्वयं को साबित करती
स्वयं से ही लड़ती
खड़ी है आज शमशीर उठाए
नकारती सब परंपराएं।
होती है आहत
अपने ही शर से
अपने जोखिम पर
लाँघती है कई सीमाएँ
क्योंकि
प्रश्नों का उसके
उत्तर नहीं है
किसी के पास
कोई कोस देता है
तो कोई करता है परिहास।

लेकिन अभी भी
इस लुप्तप्रायः जाति में
बाकी है कुछ जान
वो छोड़ नहीं पाई फितरत
नेह, ममता और संवेदना की
भीग जाती है भीतर तक
दुनिया के गम से।
वो लड़ती है,
अपने अधिकार के लिए
तरसती है नेहभरे
व्यवहार के लिए
वो सम्मान की अधिकारिणी
उसके सामने बौना है
तुम्हारा ओछा संसार
उथला व्यवहार।
नेह का व्यापार नहीं
माँगती है वह
निश्छल नेहभरा संसार
बस नेह भरा संसार।
– भावना सक्सैना 

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