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काश हम सब जन्मजात अंधे होते

 
काश हम सब जन्मजात अंधे होते --- डॉ दीपक शर्मा

क़ाश !  हम  सब जन्मजात  अंधे  होते 
हमारी आँखों  में कतई  रौशनी न होती
चेहरे पर लगा एक काला   चश्मा  होता 
और हाथ में  लकड़ी की एक छड़ी होती
तब इस विश्व का स्वरुप ही  दूसरा होता
प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व बराबर होता 
न  कोई  छोटा होता , न कोई बड़ा होता 
मानव  केवल मानव  का  ही रूप होता।।

तब मंदिर की बनावट,मस्जिद का ढांचा
गिरजे की दहलीज़, गुरूद्वारे का आँगन
स्तुतिनीय   रामायण,   वन्दनीय  कुरान
पूजनीय बाइबिल,गुरुग्रन्थ साहिब पावन
जब सब  कुछ  एक ही  तरह  के दीखते
चंद सिक्कों की ख़ातिर ईमान न बिकते
तो  हम आज  के  घ्रणित  दौर  की तरह
साम्प्रदायिकता की आग़  में न झुलसते ।।

जब हाथ एक दूसरे को पकड़कर चलता
तो  सारे  वैमनस्य  स्वयं   ही   छंट  जाते
धर्मों की  विभन्नता, वर्णों  का  विभाजन
वर्गों   की   दुविधा,  नामों  की   अड़चन
जैसे  तमाम  नफरत  भरे  धुएँ के बादल
एकता  के  सूर्य   के  कारन   छंट  जाते 
न कोई  छोटा होता,  न कोई  बड़ा  होता
मानव  केवल  मानव  का ही  रूप  होता ॥

जब सबका एक सा स्वर ,एक ही विचार
एक   ही  मंजिल,  एक  से   ही  उदगार
एक   सा  लक्ष्य ,   एक  सी   ही    दिशा
एक  जैसा   जीवन  एक  जैसी  ही दशा
एक  जैसा   धर्म ,  एक  समान  से  कर्म
एक जैसा चिंतन एक ह्रदय एक ही  मर्म
एक सी पदचाप ,एक  रुदन ,एक विलाप
एक सी वाणी  एक से गीत एक  आलाप।।

न ज़्यादा की चिंता,न कम का तनिक ग़म
पल  पल  ज़िन्दगी  को  बढ़ते  हुए  कदम
न असत्य , न छलावा , न लालच, न भरम
जब रहता  सत्य  मन में , लहज़े  में  शरम
तो  इस   विश्व  का  स्वरुप  ही दूसरा होता
जग   एक  साथ  हँसता  ,एक  साथ  रोता
न  कोई  छोटा होता , न  कोई  बड़ा  होता
मानव  केवल   मानव का  ही   रूप  होता ॥

लेकिन हम सब  आँखें  होने के  बाद भी
बेफिक्र होकर  आँखे  बंद  किए  बैठे  हैं
अनगिनत  झूठ,  फ़रेब, धोखों  के जाल
अपने  वज़ूद  के  आस - पास  समेटे  हैं
हम मंज़िल के  क़रीब  जाना नहीं चाहते
बल्कि मंज़िल को क़रीब बुलाना चाहते हैं
नेत्रहीनों  की  तरह  एक  साथ  नहीं हम
अलग - अलग होकर ही चलना चाहते हैं ।

हम एक इंसान तो सही से  बन नहीं पाते
कभी ख़ुदा तो कभी भगवान बन जाते हैं
तभी  हम  ख़ुद  को असहाय  सा पाते हैं
आगे  बढ़ने  के बजाय  पीछे आ  जाते हैं 
पहले पाप करते हैं फिर  पुण्य  कमाते  हैं
कहीं सदके तो कहीं पर ज़कात बंटवाते है
औरों के हिस्से की रोटियाँ छीनके खाते हैं 
हम आँखों के होते भी नाबीना बन जाते है।।

आगे  बढ़ने़े  के  लिए   हमें   पहले  सारे
आँखों  में  पले   भ्रम   को  तोड़ना होगा
जो झूठा अहंकार हमारे भीतर बसता है
उसे तत्काल ही तन मन  से छोड़ना होगा
एक  स्वर  में मिलकर सबको  एक  साथ
एक ही ध्वनि से  ब्रह्म वाक्य बोलना होगा 
तभी हम आगे बढ़न के काबिल हो पाएंगे
वरना हम शून्य  के दायरे में सिमट जायेंगे।।




 





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