तुम्हें क़त्ल करने के हज़ारों हुनर आते हैं
तुम हर बार एक नई अदा से जान लेती हो।
तुम्हारी मुस्कान काफ़ी है कहर बरपाने को
सितम उस पे कि झुका नज़र हँस देती हो।
गौर से देखना आइने में कभी अपनी आँखें
पता चल जायेगा किस तरह से प्राण लेती हो।
तुम्हें मालूम है किसको कहाँ मारना है कैसे
न खंज़र हाथोँ में ना ही तीर कमान लेती हो।
काज़ल आँखों का जैसे आसमान में बिजली
लगाकर रोज तुम "दीपक" की जान लेती हो।
* डॉ. दीपक शर्मा *
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