दूर जाना था चले जाते बहाने और भी थे
रुक गए क्यूँ यहीं गुनाह गिनाने और भी थे।
ज़ुर्म कुछ हमने किये हैं पर हमे इंकार कब है
क्यूँ तोड़ दिये आईने दाग दिखाने और भी थे ।
ज़िन्दगी अगर हो सके तो माफ़ कर देना मुझे
मैं ही किश्ती खे सका न तुझे मुहाने और भी थे।
मेरा क्या है जी ही लूंगा जैसे तैसे कट जायेगी
ज़ख्म एक तेरा नहीं था ग़म पुराने और भी थे ।
कोई नहीं देगा सहारा जब जवाँ होंगी उदासी
नाज़ इस नाचीज़ के तुमको उठाने और भी थे ।
रास्ता थम सा गया है ज़िंदगी रूक सी गई है
ग़ैर वो हुए जिन्हें "दीपक" जलाने और भी थे ।
*डॉ. दीपक शर्मा *
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