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तालिबे - इल्म की ये कैसी तलबगारी है
किताबें छोड़ दीं और सियासत ज़ारी है।
मासूम ज़ेहनो में ये कौन भर रहा है ज़हर
मज़हबी रहनुमाओं की ही ये मक्कारी हैं।
राहज़नी आगज़नी सरेराह दंगे फसाद
ईमानवालों ग़ज़ब अमनपरस्ती तुम्हारी है।
बस एक बार ज़मीन को सुर्ख़ हो जाने दो
शान्ति शांति कहना ही कमज़ोरी हमारी है।
स्कूल मदरसों का सियासत से क्या वास्ता
असलाह मिलता है क्या ज़ंग की तैयारी है।
ज़म्हूरियत को मुल्क़ से अलविदा कर दो
ज़म्हूरियत ही इस मुल्क़ की बीमारी है।
नरमी निज़ाम की हौंसलों को उड़ान देती है
सख़्त क़ानून के आगे पानी हर चिंगारी है।
अगर आबो-हवा भाती नहीं तो चले जाओ
गद्दारों रोका है किसने कहो क्या दुश्वारी है।
जला रहे हो वतन घुसपैठियों की ख़ातिर
क्या नहीं ये हिन्दुस्ताँ से साज़िशो-गद्दारी है।
कैसे फिर मुल्क़ को रोटी भरपेट मिलेगी
सरहदों से जब "दीपक" घुसपैठ ज़ारी है।
@ दीपक शर्मा
http ://www.kavideepaksharma.com
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