अपने ही घर में
-देवी नागरानी
ज़िंदगी एक तवील कहानी है, जिस में धूप भी है, छांव भी है, उसके सायों में सुख दुख के ताने बाने से बनी दास्ताने भी हैं. यह दास्तानें कभी सायों से लंबी, कभी छोटी, कभी ठिंगनी और कभी बिंदु सी होती हैं, जहां दास्तानों के किरदारों का जीवन भी उस बिंदु में सिमट कर रह जाता है.
सिंधी साहित्य के दस्तावेज़ी कथाकार ईश्वरचंद्र की लिखी कहानी ‘अपने ही घर में’ पढ़ने को मिली. पढ़ते हुए सामाजिक, पारिवारिक परिस्थितियों से परिचित होकर सोच विश्वास और अविश्वास के द्वंद्व में जकड़ती चली गई. क्या ऐसा भी होता है, वो भी अपने ही घर में? जहां जन्मदातिनी माँ अपनी ही शादीशुदा बेटी को पहली बार एक हफ्ता मैके आने का आमंत्रण भेजती है, वह भी अपने पति की मिन्नतें करते हुए उसे मनाने के बाद. लड़की भी ससुराल में अपना मान बनाए रखने के लिए अपने चार माह के दूध पीते बच्चे को लेकर पीहर आती है.
घर के सामने टांगा रुकते ही दरवाज़े पर माँ मिलती है. रिवायती गले लगाना, कैसी हो, दामाद जी कैसे हैं? पूछते हुए उसके लिए चाय बनाने के लिए रसोई घर में अपने बेचैनियों के साथ थाह पाती है. फिर कॉलेज जाते छोटे भाई और स्कूल में पढ़ती बहन से स्नेह भरा मिलन करते हुए घर की दरो दीवार, कोनों, चारपाइयों पर नज़र फिराते हुए पाया, सब कुछ वैसा ही था जैसे वह छोड़ गई थी.
‘ ….हूँ..हूँ…’ कुछ खांसने का असफल प्रयास करते पिताजी घर में दाखिल हुए. खाट से उठकर पिता के सीने से लग गई मुन्नी.
’ पिताजी आप कैसे हैं? आप कितने निर्बल हो गए हैं. तबीयत तो ठीक है ना?’ और जवाब में पिता ने तीन चार सवाल उसके सामने धर दिए.
‘ अरे मुन्नी तुम बताओ कैसी हो? जमाई जी कैसे हैं, आए क्यों नहीं? अब तो मुन्नी तुम खुद एक मुन्ने की माँ बन गई हो, गृहस्थी संसार कैसा चल रहा है?’
पिता के प्रथम कोशिश की बतियाने की.
‘पिताजी सब बिल्कुल ठीक हैं. मैं और मुन्ना आपके सामने हैं आपके पास. तीन बरसों से यहाँ आने का इंतजार किया और आज यहाँ हूँ, खुश हूँ, माँ को, आपको, भाई- बहन को देखकर. और सुनाएं आपका स्वास्थ्य कैसा है, काम कैसे चल रहा है?’ कहते हुए मुन्नी ने पिता के सीने पर अपना सर रख दिया.
पिता ने अपने खुरदरे हाथों से उसे खुद से कुछ दूर करते हुए कहा-’ मैं ठीक हूँ, जाओ, चाय-पानी, नाश्ता कर लो.’
इतने रूखे और कठोर व्यवहार की उम्मीद न थी मुन्नी को. उसे क्यों लगने लगा कि वे सब के सब उससे खिंचे-खिंचे से थे. पहले दिन चाय-नाश्ते के बाद, सीधे रात का सादा सा खाना खाया. दूसरे दिन उसे लगा माँ भी उससे कौ खा रही थी. मुन्ने के लिए दूध के लिए पूछा तो जवाब
दिया-’ तेरे पिता लाने गए हैं.’
अजीबो-गरीब रवैये से ज़्यादा अजब तब लगा जब मुन्ना भूख से बिलबिलाने लगा और दो घंटे से दूध लाने गए गए हुए पिताजी का पता तक नहीं था कि वे किस दिशा से आने वाले हैं. उसी समय पिताजी ने घर में पांव रखा, जूते उतारे, हाथ में पकड़े दूध की थैली उसे थमाते हुए कहा-’ मुन्नी यह दूध लेकर जा रसोई में, आज इसीसे काम चलाना!’
मुन्नी हैरान, तीन बरस बाद मैके आई, मुन्ने के लिए दूध की ताकीद…... आगे क्या होगा, क्या देखना पड़ेगा, क्या सुनना पड़ेगा, इस अनजान सोच से बेचैन हो उठी और मुन्ने को दूध पिलाते सोचों को ओढ़कर वह भी उसके पास ही लेट गई. मैके आने की खुशी जो थी वह रफूचक्कर हो गई.
सुबह उठी तो माँ ने गरम चाय की प्याली देते हुए कहा-’ मुन्नी चाय पीकर आंगन में आना, धूप में बैठकर बातें करेंगे.’
‘ क्यों क्या बात है माँ ? पिताजी भी चुप है, तुम भी चुप हो. आखिर क्या हुआ है? कुछ बताओ भी….!’ कहते ही उसकी आंखों में आंसू तैरने लगे.
‘ अरे कुछ भी तो नहीं. तू आराम से चाय पी ले, मैं भी घर का काम उतार लूँ , फिर बैठ कर आराम से बातें करेंगे.’ माँ का कहा हर लफ्ज़ बिना किसी अर्थ कानों से टकराता रहा.
‘ क्या बात करनी है माँ को, किसी सुविधाजनक स्थिति का उद्घाटन तो नहीं होने जा रहा है? बहन से भी पूछा. पर ‘पता नहीं’ कहकर वह किताबें समेटने लगी. भाई से बात करने की कोशिश की तो सुना-‘ मुझे पढ़ाई करनी है दीदी’ कहता हुआ दोस्त के यहां चला गया. इन सभी रवैयों के पीछे कोई तो समस्या जनक गुत्थी थी जो वह सुलझा नहीं पा रही थी. शायद माँ से बात करने पर इस कारण का कोई उपयुक्त सुराग मिल जाए.
उसने चाय पी, नहा धोकर मुन्ने को दूध पिला कर उसे गोद में लिए आंगन में रखे लकड़ी के संदल पर बैठ गई और फिर माँ को आवाज़ लगाई. वह ‘आई…. आई’ कहते हुए रसोईघर से साड़ी के पल्लू से हाथ पोंछते हुए बाहर आई और मुन्नी के सामने ही बैठ गई.
‘ अरे बता मुन्नी जमाई जी का काम कैसे चल रहा है, मकान की मरम्मत हो गई या अभी बाकी है?’ कुछ इस तरह के सवाल वह पूछ बैठी.
‘ माँ मैं, मुन्ना और तेरा जमाई बिलकुल ठीक हैं. ससुर की वृद्ध अवस्था के कारण कल उन्हें उनकी बेटी के यहां छोड़ आए, ताकि वह उनकी भरपूर संभाल कर सके.’ अब तुम सुनाओ माँ. क्या मेरे आने की तुम सबको कोई ख़ुशी नहीं है? मेरी तो जान पर बन आई थी. जब भी कोई पूछता-‘अरी तुम शादी के बाद तीन साल से पीहर नहीं गई हो? तीज-त्यौहार को तो पीहर से बुलावा आ ही जाता है. और तुम्हारा गांव तो कोई दूर भी नहीं, बस कुछ फासले पर ही है.’ सुनकर तो शर्म के मारे न मैं मर पाई, न जी पाई. बताओ न माँ ऐसी क्या मजबूरी है जो आपने मुझे बुलाने में इतने साल लगा दिए.’- मुन्नी नीर भरी आंखों से माँ से जवाब तलब करने लगी.
‘ वही तो मैं बताना चाहती हूँ मुन्नी.’ बहुत मिन्नत करके तेरे पिता को हर साल तुम्हें बुलाने के लिए ज़ोर देती और आख़िर इस साल उन्होंने तुम्हें बुला ही लिया. ‘पर.. पर कल से...’ कहकर माँ ने अपनी आंखें अपने पैरों के अंगूठे पर टिका दी.
‘पर कल से क्या माँ ?’ मुन्नी की उकीरता अब सभी बांध तोड़ने को तैयार थी.
‘कल से तेरे पिताजी पूछ रहे हैं, मुन्नी कब तक रहेगी, दो दिन या तीन दिन?’
सुनकर मुन्नी को लगा जैसे उसे किसी ने ऊंचाइयों से उठाकर खाई में फेंक दिया हो जहां से उसे कहीं से भी अंधेरे के सिवा कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. वह अपने भीतर की गहराइयों में डूबती जा रही थी, अपने वजूद को बिखराव से बचाने की हर कोशिश जैसे निष्फल हो गई.
‘ मुन्नी, बुरा मत मानना बेटा, तेरे पिताजी की यह मजबूरी है. वह हम चारों को दिन में एक वक्त की रोटी देने के लिए वे बारह घंटे अपने बूढ़े कांधों पर तीस किलो सामान के साथ धेले को बैल की मानिंद घसीटते हैं. आज वे पांच घंटे ज्यादा काम करेंगे. दूध देकर कह गए हैं-’पूछ लेना.’
कहते हुए माँ की आंखों से अविरल आंसू धारावाहिक प्रवाह से बहने लगे.
‘ बेटे…..’ इससे आगे वह कुछ कह न पाई.
मुन्नी ने माँ की बात काटते हुए कहा-’बस माँ. मैं आपकी बेटी हूँ. जैसा भी है मेरा अपना घर है, जैसी भी हूँ, खुश हूँ. पीहर में आने की खुशी चाही वह मिल गई. तेरी हाथ की चाय पी, रात खाना खाया सबके साथ मिलकर खाया. बस...मैं कल सुबह नाश्ते के बाद गाड़ी में रवाना हो जाऊंगी, पिता जी को बता देना.’ और वह फूट फूट कर लो रोने लगी.
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इस कहानी के किरदारों की अपनी अपनी मजबूरी है. कुछ कहानियों में किरदार खामोश रहकर भी बहुत कुछ कहते हैं, और कुछ में उनकी घुटन सब कुछ बता देती है.
इन सभी अवस्थाओं पर अर्थशास्त्र का गहरा असर है, एक तरह से ग्रहण लगा हुआ है. कभी-कभी शब्दों के अर्थ में अनर्थ भी छुपा होता है. कोई भी किसी का दुश्मन नहीं, बस परिस्थितियाँ रिश्तों की दीवारों में दरारें डाल देती हैं. और जब फासले बढ़ते हैं तो आपसी लगाव्, स्नेह के धागे सब बेमतलब के हो जाते हैं. इन्हीं कल्पना और यथार्थ के संकल्प-विकल्प के बीच में खोई मुन्नी, सुबह जल्दी उठ गई. रसोई में जाकर बचा हुआ दूध गर्म किया, फिर वह अपने कपड़े समेटने ही लगी थी कि पिता की आवाज बाहर से आई- ‘मुन्नी की अम्मा, बाहर टांगेवाला आ गया है, बस डिपो तक ले जाएगा और फिर वहां से बस का सफर है. जब मुन्नी तैयार हो जाए तो बता देना.’
मुन्नी को लगा वह आसमान से गिर कर खजूर की डाली में लटकी हो. अगर वह न आती तो कम से कम रिश्तों का भरम तो बना रहता. अब तो जो आस के दरवाजे खुले थे वे भी वह अपने पीछे बंद करती जायेगी.
फिर बिना समय गँवाए वह अपने बची-खुची मर्यादा की पोटली का भार अपने अंतर्मन में लिए बाहर आई. माँ को गले लगाया, बहन को सीने से, और भाई के सर पर हाथ फेरते हुए मुन्ने को संभालने का भार उसे देते हुए दहलीज के बाहर आते ही टांगे की ओर बढ़ी यह कहते हुए -‘चलिए पिताजी’.
पिता के मुंह से एक हर्फ़ न निकला, न बेटी के लिए दुआ, न आशीष. बस मर्यादा का मर्म निभाते हुए अपने चार महीने के नाती को बेटी की गोद से लिया, और उसका माथा चूमते हुए ‘खुश रहो’ कहकर मुन्नी की ओर बढ़ा दिया.
मुन्नी के लिए यह समझना मुश्किल था कि यह चुंबन प्यार का प्रतीक है या रिश्तो की अलविदाई का संकेत!
और टांगेवाला घोड़े को चाबुक मारता हुआ आगे की ओर बढ़ रहा था. मुन्नी की सोच की रफ्तार उन सब वाहनों से भी तेज़ रफ़्तार में उसके अपने घर की ओर जा रही थी.
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