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"अपने ही घर में" समीक्षा

 


 


"अपने ही घर में" (कहानी संग्रह)
समीक्षक  -खीमन यू. मूलाणी


सृजन अन्तः स्फुटित उमंगों एंव भावनाओं की स्वाभाविक अभिव्यक्ति होता है।
 मेरे विचार में पहला गीत माँ की अपने बच्चे के प्रति मन में उठी ममता के कारण स्वतः लोरी के रुप में उपजा होगा। उसी प्रकार देखी दिखाई बातों को बताने की अन्तर इच्छा से ही कहानी ने जन्म लिया होगा। ये दोनों चीजें मानवीय अंतःकरण से स्वतः उभरी होंगी।
श्रीमती देवी नागरानी सिंधी की वरिष्ठ कवियत्री एंव कहानीकार हैं। उनकी कई सिंधी पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इसके अलावा उन्होने कई सिंधी पुस्तकों के हिंदी अनुवाद भी किये हैं, जो हिंदी पाठकों के बीच उनकी पहचान स्थापित करने में सहायक रहे हैं। "अपने ही घर में" उनकी ताज़ा हिंदी पुस्तक है। इसमें उन्होने सिंधी कहानियों का हिंदी अनुवाद प्रस्तुत किया है। सम्पादन भी उन्होने स्वयं किया है। गीता के १८ अध्याय तो आप सब लोगों ने पढ़े ही होंगे। ठीक उसी तरह इस पुस्तक में भी १८ कहानियां सम्मिलित हैं, जो भारत के विभाजन उपरान्त सिंधी के सशक्त सिंधी कहानीकारों द्वारा लिखी हुई हैं।
भारत का विभाजन सिंधी हिंदुओं के लिये भूचाल की तरह था। वे भारत के कोने कोने में बिखर गये। उनकी भाषा और संस्कृति के संरक्षण एंव संवर्धन के लिये खतरा उत्पन्न हो गया। इसलिए इस संकलन में सम्मिलित कुछ एक कहानियों में भारत के विभिन्न प्रदेशों का ठेठ भारतीय परिवेश है। सुगन आहुजा की कहानी "माई बाप" अकालग्रस्त ग्राम की कहानी है, जहां गंवार गांव वाले जीवन और मौत के बीच लड़खड़ाते हैं। बच्चे और बड़े भूख से मर रहे हैं। फिर भी मुखिया के गोदाम का ताला तोड़ कर क्षुधा शांत करने के बजाय किस्मत को दोष देते हैं और भगवान रुठ गया है जैेसी व्यर्थ की बातें सोचते हैं। रोते हैं पर प्रयास नहीं करते।
आनन्द टहलरामानी की "बदनाम बस्ती" भी अति निम्न वर्ग की कहानी है, जिसमें स्त्रियां भूख मिटाने के लिये मजबूरन देह व्यापार करती हैं, लेकिन रेशमा काली का रुप धारण कर उसका ज़ोरदार विरोध करती है।
                 "मैं पत्थर नहीं बनना चाहती" काल परिवर्तन की कहानी है। मां बाप की अचानक मृत्यू होने पर नन्ही विमला को उसके पिताजी का घनिष्ठ मित्र बेटी की तरह पाल पोस कर बड़ा करता है। वह उसे अपनी मां समझता है। उसका विवाह करवाता है। अचानक उसका पति भी उसे दो बच्चों के साथ छोड़कर मर जाता है। तब भी विमला के पिताजी का मित्र उसे पति की फर्म में नौकरी दिलवाता है और बीमे के पैसे अपने करोड़पति बेटे श्याम के पास ब्याज पर रखवा देता है। श्याम के मन में बदनियती आ जाती है। वह और उसके परिवार वाले विमला को मरणासन्न पप्पा से मिलने तक नहीं देते। तब विमला पप्पा से कहती है कि ये आपके घरवाले पत्थर बने हैं तो मैं पत्थर नहीं बनूंगी।
मोहन कल्पना की "झलक" बेरोज़गार पति तथा कमाऊ पत्नी की कहानी है । पत्नी उसे खर्चे के लिये कुछ पैसे लेने को कहती है तो वह स्वाभिमान के कारण मना कर देता है। एक दिन वह पत्नी को कहता है कि कुछ मांगो। वह उसे 5 पैसे का पान लाने को कहती है। वह भाई से मिले चाय पीने के 5 पैसे लेकर बाज़ार पान लाने जाता है जहां उसे एक बच्चा बिस्कुट बेचते हुए मिलता है। बच्चा कहता है मैं रोज़ 40 बिस्कुट 5-5 पैसे में बेचता हूं। यदि नहीं बेचूंगा तो पिताजी मारेंगे। वह 5 पैसे का बिस्कुट खरीद पत्नी को लाकर देता है। जब वह पत्नी को उस बच्चे की कहानी सुनाता है तो पत्नी बहुत प्रसन्न होती है और पति से कहती है कि तुमने मुझे ये बिस्कुट दे कर वो कुछ दिया है जो राजा हरिश्चन्द्र ने विश्वामित्र को भी नहीं दिया होगा।
सभी कहानियों का सार यहां प्रस्तुत करना संभव नहीं है। सभी मार्मिक कहानियां हैं। अलबता मैं एक और कहानी संक्षेप में बताने का मोह छोड़ नहीं पा रहा हूं। शायद इसलिए क्योंकि यह कहानी भारत के विभाजन के कारण दुखी एक विस्थापित सिंधी बुज़ुर्ग की अन्तर संवेदनाओं को उजागर करती है। श्री खीमन यू मूलाणी द्वारा लिखित "प्रतीक्षा" कहानी में 1971ई० के भारत-पाक युद्ध में जब भारत सिंध प्रदेश के कुछ एक इलाकों को जीत लेता है तब उसके मन में आशा जगती है कि वह अब अपने पुश्तैनी गांव में लौट कर पूर्ववत अपना शेष जीवन सुख चैन से बितायेगा। ऐसे समय में जब उसे एक सिंधी युवक यह कहता है कि बाबा अब सपने देखना छोड़ दो। 24 वर्षों बाद सिंध में भी सब कुछ बदल गया होगा। तब वह दुखी मन से उत्तर देता है कि "मैं अपनी जन्मभूमि से बिछड़ने का दर्द सीने में संजोकर, उस के दीदार की प्रतीक्षा करता रहूंगा।"
श्रीमती देवी नागरानी स्वयं भी कहानीकार हैं। इसलिए वे कहानी के शिल्प और कथ्य तथा उसके भाव एंव कला पक्ष को अच्छी तरह समझती हैं। यही कारण है कि उनके द्वारा चयनित सभी कहानियां पढ़ते समय पाठक मंत्रमुग्ध हो जाता है। अलग अलग पृष्ठभूमि/ माहोल की ये कहानियां मानवीय संवेदनाओं को झकझोर देती हैं और पाठक को लेखक से एकाकार कर देती हैं। अनुवाद करते समय सुश्री नागरानी जी ने सहज और सरल हिन्दी भाषा का उपयोग किया है जो आम हिन्दी पाठक के पठन प्रवाह में बाधा उत्पन्न नहीं करती। 

पुस्तक-अपने ही घर में, अनुवादिका-देवी नागरानी, मूल्य: रु.350, प्रकाशक: विकल्प प्रकाशन 2226/बी, प्रथम तल, गली न 033, पहला पुस्ता, सोनिया विहार, दिल्ली-110094 , ph: 09211559886 


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