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गंगा बहती रही समीक्षा

 

गंगा बहती रही”  A close-up of a person

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लघुकथा क संक्षिप्त परिचय: 

“और गंगा बहती रही” सिन्धी लघुकथाओं का हिन्दी अनुवाद है जिसे लेखिका देवी नागरानी ने स्वयं किया है, कृति का प्रकाशन स्नेहवर्धन प्रकाशन ने पुणे से हुआ है।

गत दो दशक से लघुकथा साहित्य क्षेत्र में प्रस्थापित है। आप किसी भी साहित्यिक या गैर साहित्यिक पत्रिका लीजिए, लघुकथा द्वारा ही वह श्रृंगारित है अथवा यों कहें कि पत्रिका को सजने सँवारने उसे रमणीय रोचक और उसे अर्थवक्ता भाव सत्ता देने का काम लघुकथा ने किया है और यह क्रम आज भी बना हुआ है। लघुकथा को एक ने ‘चिंटी कार’ की संज्ञा दी है। मेरी दृष्टि में यह बड़ा सार्थक संबोधन है। चिंटी काटती है अपने अस्तित्व रहने का बोध करा जाती है उसी प्रकार लघुकथा है! अपने अस्तित्व को दर्शा जाती है। यह लघु कथा शब्दों के चौखट में अपनी सत्ता को बता जाती है वह चार वाक्य में हो या एक डेढ़ पृष्ठ उसकी विस्तार सीमा हो ।

देवी नागरानी जी का यह लघुकथा संग्रह इस दृष्टि से महत्वपूर्ण पठनीय और बोधगम्य है, कारण कुल इक्कासी लघुकथाएँ जीवन का विविधांची रूप दर्शन है। सिन्धी समाज जीवन की झांकी है। मनुष्य तो सर्वत्र शारीरिक अवयवों में समान है पर भिन्नता तो उसके स्वभाव आधरण, व्यवहार और मानसिकता में है। और इसी भिन्नता, विविधता के दर्शन “और गंगा बहती रही" सिन्धी लघुकथा है। गंगा का जल निरन्तर प्रवाहित हो अपनी गतिमानता दर्शाता चिरन्तनता को सिद्ध करता वह तो आगे आगे बढ़ता ही जाता है, थमता नहीं, तद्‌वत ये लघु कथाएँ हैं।

“और गंगा निरंतर बहती रही” इसी कृति का शीर्षक, एक लघु कथा है जो अपने आप में भावपूर्ण है। यथार्थ स्थिति की सच्चाई, उसके साथ की लड़ाई और थक कर, हार कर, अपने जीवन को ही समाप्त कर देने की मजबूरी को व्यक्त करती लघु कथा है। जिसमें पत्नी सुधा अपने बच्चों को नहलाती धुलाती चीत्कार करती है। उसके पति राम उसे कैसा प्रसाद दे गए हैं जो आखों से निरंतर गंगा बहती रहती है। निक्कमे पति का बोझ और औलाद को पालना पोसना, बढ़ा करना यही सुधा की नियति थी, प्रति माह माइके जाती और बाप से कुछ रूपये गाँठ में बांध लौटती, पर आखिर यह कब तक और कहाँ तक चलता. उससे अपनी छुट्टी करने का एक ही उपाय था, जीवन का अंत आखिर उसने उसी को अपनाया. यह लघुकथा आज भी बेरोज़गारी पर थप्पड़ है. लघुकथा मन के किसी कोने में घर कर जाती है। 

लघुकथा नामारूप आकार में छोटी होते हुए भी “घाव करे गंभीर” होती है. इस संग्रह में भी कुछ लघुकथाएं तो सिर्फ तीन चार वाक्यों में अपना कलेवर समेटे हुए है, कुछ एक देढ पृष्ठों में भी फैली है पर छोटी हो या बड़ी ये लघुकथाएं जीवन की सत्यता, अनुभवों का गांभीर्य, संवेदनशीलता, प्रेणणा, व्यहवार कौशल्य, आचरण, व्यहवार चातुर्य, आवश्यकता, उपयोगिता और जीवनादर्श की सत्यता, 'सार्थकता को दर्शाती है, सांकेतिक करने के उद्देश्य का निर्वाहन करती है. 

“दोहराव, अलौकिक स्पर्श, ज़िन्दगी ने दम तोड़ दिया. मैं मजबूर हूँ,  तोल-मोल, खूबसूरत, दम घुटता है, ममता का मूल्यांकन, ऐसी लघुकथाएं हैं जो एक बार से अधिक पढ़े जाने पर अलग अलग ध्वनित होती  है।

जीवन में छोटे छोटे जिये जाने वाले पल भी लघुकथा के धागे में मोती की तरह पिरोये जाते हैं. एक सुन्दर मणिमाला गले हार श्रृंगार बन जाती है। 'आपसी प्रेम, उद्देश्य और आदेश, गरीबी की रेखा, रिश्तो की बुनियाद्, ये ऐसे ही मोती हैं, जिन्हें उस लघुकथा में मणिमाला के रूप में आपके सामने रखे गए हैं, आकर्षक है, मन को मोहित करते लुभावने है. 

प्रसिद्द सिंधी पत्रकार, साहित्यकार, स्व: श्री जीवतराम सेतपाल जी, ‘प्रोत्साहन’ के संपादकीय में इसके बारे में लिखा था-“लघुकथा आनंद की बौछार है, बरसात नहीं, होंटों की मुस्कान है, हंसी या ठहाका नहीं, यह मधुर गुदगुदी है, खुजली नहीं। लघुकथा फुलझड़ी है बम नहीं।‘

वे यह कहते हैं यह धुआंधार झमझमा बरसती बारिश नहीं, होंठों  मुस्कान है। हंसी या जोरदार ठहाका नहीं यह मधुर गुद्गुदाहट है, खुजली नहीं, फुलझड़ी है। बमपटाखा नहीं, पर बडी कसमसाहट इसमें समायी हुई है तभी तो अन्दर तक झनझनाहट पैदा कर देती है. “समय भी दरकार, अहसास, रिश्ते, दावत, रिटर्न गिफ्ट, भिक्षापात्र, पत्थर दिल, ये लघुकथाएँ इस सच्चाई से अवगत कराती है। भिक्षा पात्र में नौजवान के  शब्द है "मान्यवर हम तो वही है बस स्थान बदल गया है. भिक्षा की तरह न हमारा कुछ है, न आपका. बस लेने वाले हाथ कभी देने वाले बन जाते हैं. अपनी अपनी फ़ितरत है’ 

नागरानी जी ने जीवन पथ पर चलेत कंटकाकीर्ण मार्ग की अनगिनत यातनाओं को देखा है, सुना समझा है। बहुत काल तक पीढ़ा  सहा भोग है। इनमें से गुज़रते हुए अपने लिए मार्ग बनाया है. विभाजन की पीड़ा तो उनके रोम रोम में समाई हुई है. शरणार्थी बनकर मुंबई में रही पर पुरुषार्थी का बिल्ला छाती पर चिपकाये रही। फिर विदेश में अमेरिका में रूज़वेल्ट, बिल क्लिंटन, बराक ओभामा,कैथरिन ग्राहम, हिलरी उनके कर्मनिष्ठ बनने, व् कठिन परिश्रम के आयकॉन बने. “और गंगा बहती रही" की कतिपय लघुकथाओं के ये शब्दसूत्र हैं. अपने चतुर्दिक आस पास घटित घटनाओं को शब्द बद्ध कर उन्होंने लघुकथाओं के माध्यम से लोगों तक पहुंचाया है। 

सिन्धी मात्र भाषा, अविभाजित भारत, कराची सिन्ध प्रान्त की माटी में पली बढ़ी, उस अन्न जल से पोषित, उस शुद्ध वायु में श्वास लेती देवी नागरानी जी के स्वाभाव में उस माटी का गीलापन, आद्रता, सोंधापन समाया हुआ है। अनेक लघुकथाओं के शब्द इसका साक्ष्य है. सच का पल्ला पकडे अँधेरे घने निराशा के क्षणों में अपने आप पर बडा तीक्षण व्यंग उपहास करते "चल मेरी लाडो, वह मंजिल अब दूर नहीं, शर्तो पर शादी, गृह प्रवेश, फटाफट, नफा नुकसान, साफ खिडकी, आज के युग की त्रासदी है। तलाक तो आज समाज का अलंकार बन गया है। “खूबसूरत” लघुकथा समाज की सचाई पर एक ज़ोरदार थप्पड़ है कि गाल लाल हो जाए आप सहलाते रहें.

आज मनुष्य संवेदनाओ से ही खाली हो गया है. मन मरूस्थल हो गया है। विचार और चिंतन विरहित रेगिस्तान ही सर्वत्र फैला हुआ है। मैं जब देवी नागरानी जी की यह पुस्तक पढ़ती रही तब मन में यह भाव् जागा, विचार आया कि आखिर यह सब क्यों और कैसे हुआ तब इसका कि यह तो अन्न का दोष है. जैसा बोओ वैसा काटो, वैसा खाओ. पृथ्वी, माटी, स्वाद, बीज, जल सब में धरती, पर इतनी मिलावट है कि इस मिलावट को हम भोग रहे हैं, अनुभव कर रहे हैं। लघुकथा चाहे “ओ पालनहारे, हो या ‘मैं मजबूर हूँ, ये एक दर्पण है जिसमें अक्स साफ़ साफ़ नज़र आता है. कारन दर्पण कभी झूठ नहीं बोलता.  

व्यंग एक शास्त्र है, दुधारी तलवार की तरह. अपना रक्षा कवच भी है और प्रहार भी करता है. संग्रह की अनेक लघुकथाओं में यह व्यंग्य मुखर है. नागरानी जी लिखती है कि जब एक सहेली ने जो बड़ी कलमकारा थीं, मुझे बार बार देवरानी संबोधित कर रहीं थीं, तो मैंने कहा - "चलो यह भी ठीक है। आप मेरी जेठानी ही सही है। हास्य और व्यंग्य द्वारा सच्चाई को यूं भी मुखर किया जाता है. 

लघुकथाओं में ज़िन्दगी के कई रंग है जो अनुभवों की धरातल पर हमसे 

जिन्दगी के रू ब रू होते है, जहाँ ज़िन्दगी कभी हंसाती हुई, कभी रुलाती हुई दिखाई देती है. कभी कभी वक्त जो जख्म देता है वही किसी और दौर में महरम भी बन जाता है. जीवन तो सफर है चलना है और चलते रहना है थम जाना नहीं. निश्चय विश्वास भी एक ऐसी कडी है जो वक्त के थपेडे खाकर ढीली पड़ जाती है, पर टूटने के पहले न टूटने की समझ दे जाती है. 

‘और गंगा बहती रही’  लघु कथा संग्रह जीवन का दर्शन है। अत्यंत सरल सहज प्रवाही भाषा अपना प्रभाव छोड़ती है। मैं इस कथा संग्रह के लिए उनकी भरपूर प्रशंसा करती हूँ और प्रभु राम के चरणों में प्रार्थना करती हूँ कि उनकी लेखनी निरन्तर अबाधित चलती रहे। अनेक मंगल कामनाओं के साथ, 

डॉ. विद्या केशव चिटको, नासिक

सेवा निवृत्त शोधनिर्देशक डायरेक्टर हिन्दी रिसर्च

सेंटर, पुणे विद्यापीठ महाराष्ट्र

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